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में सलीम से सारी बातें मालूम होती रहती थीं। खत लिखने की क्या जरूरत थी? सकीना से उसे प्रेम हुआ, इसकी जिम्मेदारी उन्होंने सुखदा पर रखी थी; पर आज सुखदा से मिलकर उन्होंने चित्र का दूसरा रुख भी देखा और सुखदा को उस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। खत जो लिखा वह इतना लम्बा-चौड़ा कि एक ही पत्र में साल भर की कसर निकल गयी। अमरकान्त के जाने के बाद शहर में जो कुछ हुआ उसकी पूरी-पूरी कैफ़ियत बयान की, और अपने भविष्य के सम्बन्ध में उसकी सलाह भी पुछी। अभी तक उन्होंने नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था। पर इस आन्दोलन के बाद से उनको अपने पद पर रहना कुछ जँचता न था। उनके मन में बार-बार शंका होती, जब तुम गरीबों के वकील बनते हो तो तुम्हें क्या हक है कि तुम पाँच सौ रुपये माहवार सरकार से वसूल करो। अगर तुम ग़रीबों की तरह नहीं रह सकते, तो गरीबों की वकालत करना छोड़ दो। जैसे और लोग आराम करते हैं, वैसे तुम भी मजे से खाते-पीते रहो। लेकिन इस निर्द्वन्द्वता को उनकी आत्मा स्वीकार न करती थी। प्रश्न था, दिन गुज़र कैसे हो? किसी देहात में जाकर खेती करें, या क्या? यों रोटियाँ तो बिना काम किये भी मिल सकती थीं; क्योंकि सेवाश्रम को काफ़ी चन्दा मिलता था; लेकिन दान वृत्ति की कल्पना ही से उनके आत्माभिमान को चोट लगती थी।

लेकिन पत्र लिखे चार दिन हो गये, कोई जवाब नहीं। अब डाक्टर साहब के सिर पर एक बोझ सवार हो गया। दिन भर डाकिये की राह देखा करते; पर कोई खबर नहीं। यह बात क्या है? क्या अमर कहीं दूसरी जगह तो नहीं चला गया? सलीम ने पता तो ग़लत नहीं बता दिया? हरिद्वार से तीसरे दिन जबाब आना चाहिये। उसके आठ दिन हो गये। कितनी ताकीद कर दी थी कि तुरन्त जवाब लिखना। कहीं बीमार तो नहीं हो गया? दूसरा पत्र लिखने का साहस न होता था। पूरे दस पन्ने कौन लिखे ? वह पत्र भी कुछ वैसा पत्र न था, शहर का साल भर का इतिहास था। वैसा पत्र फिर न बनेगा। पूरे तीन घंटे लगे थे। इधर आठ दिन से सलीम भी नहीं आया। वह तो अब दूसरी दुनिया में है। अपने आई० सी० एस० की धुन में है। यहाँ क्यों आने लगा ? मुझे देखकर शायद

कर्मभूमि
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