का स्नान करती हुई, माघ में काशी पहुँची, तो यहाँ का सुप्रबन्ध देखकर बहुत प्रसन्न हुई।
अमरकान्त ने बचत के पाँच सौ रुपये उनके सामने रख दिये।
रेणुका देवी ने चकित होकर कहा--क्या पाँच सौ ही में सब कुछ हो गया ? मुझे तो विश्वास नहीं आता।
'जी नहीं, ५००) ही खर्च हुए।'
'यह तो तुमने इनाम देने का काम किया है। यह बचत के रूपये तुम्हारे
अमर ने झेंपते हुए कहा--जब मुझे जरूरत होगी, आपसे माँग लूंँगा। अभी तो कोई ऐसी ज़रूरत नहीं है।
रेणुका देवी रूप और अवस्था से नहीं, विचार और व्यवहार से वृद्धा थीं। दान और व्रत में उनकी आस्था न थी ; लेकिन लोकमत की अवहेलना न कर सकती थीं। विधवा का जीवन तप का जीवन है। लोकमत इसके विपरीत कुछ नहीं देख सकता। रेणुका को विवश होकर धर्म का स्वांग भरना पड़ता था; किन्तु जीवन बिना किसी आधार के तो नहीं रह सकता। भोग-विलास, सैर-तमाशे से आत्मा उसी भांति सन्तुष्ट नहीं होती, जैसे कोई चटनी और अचार खाकर अपनी क्षुधा को शान्त नहीं कर सकता। जीवन किसी तथ्य पर ही टिक सकता है।) रेणुका के जीवन में यह आधार पशुप्रेम था। वह अपने पशु-पक्षियों का एक चिड़ियाघर लाई थीं। तोता, मैना बन्दर, बिल्ली, गाय, मोर, कुत्ते आदि पाल रखे थे और उन्हीं के सुख-दुःख में सम्मिलित होकर जीवन में सार्थकता का अनुभव करती थीं। हरएक का अलग-अलग नाम था, रहने का अलग-अलग स्थान था, खाने-पीने के अलग-अलग बर्तन थे। अन्य रईसों की भांति उनका पशु-प्रेम नुमायशी, फैशनेविल या मनोरंजक न था। अपने पशु पक्षियों में उनकी जान बसती थी, वह उनके बच्चों को उसी मातृत्वभरे स्नेह से खिलाती थीं, मानों अपने नाती-पोते हों। ये पशु भी उनकी बातें, उनके इशारे, कुछ इस तरह समझ जाते थे, कि आश्चर्य होता था।
दूसरे दिन माँ बेटी में बातें होने लगी।
रेणुका ने कहा--तुझे ससुराल इतनी प्यारी हो गयी ?