आँखें चुराने लगे। स्वार्थ भी ईश्वर ने क्या चीज़ पैदा की है। कहाँ तो नौकरी के नाम से घृणा थी। नौजवान सभा के भी मेम्बर, कांग्रेस के भी मेम्बर। जहाँ देखिए, मौजूद। और मामूली मेम्बर नहीं, प्रमुख भाग लेनेवाला। कहाँ अब आई० सी० एस० की पड़ी हुई है। बचा पास तो क्या होंगे, वहाँ धोखा-धड़ी नहीं चलने की। मगर नामिनेशन तो हो ही जायगा। हाफि़जजी पूरा जोर लगायेंगे। एक इम्तहान में भी तो पास न हो सकता था। कहीं परचे उड़ाये, कहीं नकल की, कहीं रिश्वत दी, पक्का शोहदा है और ऐसे लोग आई० सी० एस० होंगे!
सहसा सलीम की मोटर आयी, और सलीम ने उतरकर हाथ मिलाते हुए कहा-अब तो आप अच्छे मालूम होते हैं। चलने-फिरने में तो दिक्कत नहीं होती ?
शांतिकुमार ने शिकवे के अन्दाज से कहा-मुझे दिक्कत होती है या नहीं तुम्हें इससे मतलब ! महीने भर के बाद तुम्हारी सूरत नज़र आयी है। तुम्हें क्या फ़िक्र कि मैं मरा या जीता हूँ। मुसीबत में कौन साथ देता है। तुमने कोई नई बात नहीं की।
'नहीं डाक्टर साहब, आज-कल इम्तिहान के झंझट में पड़ा हुआ हूँ। मुझे तो इससे नफ़रत है। खुदा जानता है, नौकरी से मेरी रूह काँपती है। करूँ क्या, अब्बाजान हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। यह तो आप जानते ही हैं, मैं एक सीधा जुमला ठीक नहीं लिख सकता; मगर लियाकत कौन देखता है। यहाँ तो सनद देखी जाती है। जो अफसरों का रुख देख कर काम कर सकता है, उसके लायक होने में शुबहा नहीं। आजकल यही फ़न सीख रहा हूँ।
शांतिकुमार ने मुसकराकर कहा-मुबारक हो; लेकिन आई०सी०एस० की सनद आसान नहीं है।
सलीम ने कुछ इस भाव से कहा, जिससे टपक रहा था, आप इन बातों को क्या जानें-जी हाँ, लेकिन सलीम भी इस फ़न में उस्ताद है। बी० ए० तक तो बच्चों का खेल था। आई० सी० एस० में ही मेरे कमाल का इम्तहान होगा। सबसे नीचे मेरा नाम गजट में न निकले, तो मुंह न दिखाऊँ।