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जी चाहे। साफ हो जाय। जब कुछ जलाने को बाकी न रहेगा, तो आप आग ठण्डी हो जायगी। तब तक हम भी हाथ सेंकते हैं। कुछ अमर की भी खबर है? मैंने एक खत भेजा था, कोई जवाब नहीं आया।

सलीम ने जैसे चौंककर जेब में हाथ डाला और एक खत निकालता हुआ बोला-लाहौल विलाकूवत। इस खत की याद ही न रही। आज चार दिन से आया हुआ है। जेब में ही पड़ा रह गया। रोज सोचता था और रोज़ भूल जाता था।

शांतिकुमार ने जल्दी से हाथ बढ़ाकर खत ले लिया, और मीठे क्रोध के दो-चार शब्द कहकर पत्र पढ़ने लगे-

'भाई साहब, मैं ज़िन्दा हूँ। और आपका मिशन यथाशक्ति पूरा कर रहा हूँ। वहाँ के समाचार कुछ तो नैना के पत्रों से मुझे मिलते ही रहते थे; किन्तु आपका पत्र पढ़कर तो मैं चकित रह गया। इन थोड़े से दिनों में तो वहाँ क्रान्ति सी हो गयी। मैं तो इस सारी जाग्रति का श्रेय आपको देता हूँ। और सुखदा तो अब मेरे लिए पूज्य हो गयी है। मैंने उसे समझने में कितनी भयंकर भूल की, यह याद करके मैं विकल हो जाता हूँ। मैंने उसे क्या समझा था, और वह क्या निकली। मैं अपने सारे दर्शन और विवेक और उत्सर्ग से वह कुछ न कर सका, जो उसने एक क्षण में कर दिखाया। कभी गर्व से सिर उठा लेता हूँ, कभी लज्जा से सिर झुका लेता हूँ। हम अपने निकटतम प्राणियों के विषय में कितने अज्ञ हैं, इनका अनुभव करके मैं रो उठता हूँ। कितना महान् अज्ञान है। मैं क्या स्वप्न में भी सोच सकता था कि विलासिनी सुखदा का जीवन इतना त्यागमय हो जायगा? मुझे इस अज्ञान ने कहीं का न रखा। जी में आता है, आकर सुखदा से अपने अपराध क्षमा कराऊँ; पर कौन-सा मुँह लेकर आऊँ। मेरे सामने अन्धकार है, अभेद्य अन्धकार है। कुछ नहीं सूझता। मेरा सारा आत्म-विश्वास नष्ट हो गया है। ऐसा ज्ञात होता है, कोई अदेख शक्ति मुझे खिला-खिलाकर कुचल डालना चाहती है। मैं मछली की तरह काँटे में फँसा हुआ हूँ। काँटा मेरे कण्ठ में चुभ गया है। कोई हाथ मुझे खींच लेता है, खिंचा चला जाता है। फिर डोर ढीली हो जाती है और मैं भागता हूँ। अब जान पड़ा कि मनुष्य विधि के हाथ का खिलौना है। इसलिए

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कर्मभूमि