सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेन्ट है। ग़रीब और अमीर का फ़र्क मिटा दो और गवर्नमेन्ट का ख़ातमा हो जाता है।

'आप तो खयाली बातें कर रहे हैं। गवर्नमेन्ट की ज़रूरत' उस वक्त न रहेगी, जब दुनिया में फ़रिश्ते आबाद होंगे।'

'आइडियल (आदर्श) को हमेशा सामने रखने की जरूरत है।'

'लेकिन तालीम का सीगा तो जब्र करने का सीमा नहीं है। फिर जो आप अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा सेवाश्रम में खर्च करते हैं, तो कोई वजह नहीं कि आप मुलाज़मत छोड़कर संन्यासी बन जायँ।'

यह दलील डाक्टर के मन में बैठ गयी। उन्हें अपने मन को समझाने का एक साधन मिल गया। बेशक, शिक्षा-विभाग का शासन से सम्बन्ध नहीं। गवर्नमेन्ट जितनी ही अच्छी होगी, उसका शिक्षाकार्य और भी विस्तृत होगा। तब इस सेवाश्रम की भी क्या जरूरत होगी। संगठित रूप से सेवाधर्म का पालन करते हुए, शिक्षा का प्रचार करना किसी दशा में भी आपत्ति की बात नहीं हो सकती। महीनों से जो प्रश्न डाक्टर साहब को बेचैन कर रहा था, आज हल हो गया।

सलीम को बिदा करके वह लाला समरकान्त के घर चले। सुखदा को अमर का पत्र दिखाकर सुर्खरू बनना चाहते थे। जो समस्या अभी वह हल कर चुके थे, उसके विषय में फिर कुछ सन्देह उत्पन्न हो रहे थे। उन सन्देही को शान्त करना भी आवश्यक था। समरकान्त तो कुछ खुलकर उनसे न मिले। सुखदा ने उनकी खबर पाते ही बुला लिया। रेणुकाबाई भी आयी हुई थीं।

शांतिकुमार ने जाते ही अमरकान्त का पत्र निकालकर सुखदा के सामने रख दिया और बोले-सलीम ने चार दिनों से अपनी जेब में डाल रखा था और मैं घबरा रहा था कि बात क्या है।

सुखदा ने पत्र को उड़ती हुई आँखों से देखकर कहा-तो मैं इसे लेकर क्या करूं?

शांतिकुमार ने विस्मित होकर कहा-जरा एक बार इसे पढ़ तो जाइये। इससे आपके मन की बहुत-सी शंकाएँ मिट जायेंगी।

सूखदा ने रूखेपन के साथ जवाब दिया-मेरे मन में किसी की तरफ से

२३०
कर्मभूमि