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कोई शंका नहीं है। इस पत्र में भी जो कुछ लिखा होगा, वह मैं जानती हूँ। मेरी खूब तारीफें की गयी होंगी। मुझे तारीफ की ज़रूरत नहीं। जैसे किसी को क्रोध आ जाता है, उसी तरह मुझे वह आवेश आ गया। वह भी क्रोध के सिवा और कुछ न था ! क्रोध की कोई तारीफ नहीं करता।

'यह आपने कैसे समझ लिया कि इसमें आपकी तारीफ ही है ?'

'हो सकता है, खेद भी प्रकट किया हो।'

'तो फिर आप और चाहती क्या हैं ?'

'अगर आप इतना भी नहीं समझ सकते तो मेरा कहना व्यर्थ है।'

रेणुकाबाई अब तक चुप बैठी थीं। सूखदा का संकोच देखकर बोली- जब वह अब तक घर लौटकर नहीं आये, तो कैसे मालूम हो कि उनके मन के भाव वदल गये हैं। अगर सुखदा उनकी स्त्री न होती, तब भी तो उसकी तारीफ़ करते ! नतीजा क्या हुआ, जब स्त्री-पुरुष सुख से रहें, तभी तो मालूम हो कि उनमें प्रेम है। प्रेम को छोड़िये। प्रेम तो विस्ले ही दिलों में होता है। धर्म का निबाह तो करना ही चाहिये । पति हजार कोस पर बैठा हुआ स्त्री की बड़ाई करे, स्त्री हजार कोस पर बैठी हुई मियां की तारीफ़ करे। इससे क्या होता है ?

सुखदा खीझकर बोली- आप तो अम्मा बे-बात की बात करती हैं। जीवन तब सुखी हो सकता है, जब मन का आदमी मिले। उन्हें मुझसे अच्छी एक वस्तु मिल गयी। वह उसके वियोग में भी मगन हैं। मुझे उनसे अच्छा अभी तक कोई नहीं मिला और न इस जीवन में मिलेगा, यह मेरा दुर्भाग्य है। इसमें किसी का दोष नहीं।

रेणुका ने डाक्टर साहब की ओर देखकर कहा- सुना आपने बाबूजी! यह मुझे इसी तरह रोज़ जलाया करती है। कितनी बार कहा कि चल हम दोनों उसे वहाँ से पकड़ लायें। देखें, कैसे नहीं आता। जवानी की उम्र में थोड़ी-बहुत नादानी सभी करते हैं; मगर यह न खुद मेरे साथ चलती है, न मुझे अकेले जाने देती है। भैया, एक दिन भी ऐसा नहीं जाता कि बगैर रोये मुँह में अन्न जाता हो। तुम क्यों नहीं चले जाते भैया! तुम उसके गुरु हो, तुम्हारा अदब करता है । तुम्हारा कहना वह नहीं टाल सकता।

सुखदा ने मुसकराकर कहा- हाँ यह तो तुम्हारे कहने से आज ही चले

कर्मभूमि
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