जायँगे। यह तो और खुश होते होंगे कि शिष्यों में एक तो ऐसा निकला, जो इनके आदर्श का पालन कर रहा है। विवाह को यह लोग समाज का कलंक समझते हैं। इनके पंथ में पहले तो किसी को विवाह करना ही न चाहिए, और अगर दिल न माने, तो किसी को रख लेना चाहिए। इनके दूसरे शिष्य मियाँ सलीम हैं। हमारे बाब साहब तो न-जाने किस दबाव में पड़कर विवाह कर बैठे। अब उसका प्रायश्चित कर रहे हैं।
शांतिकुमार ने झेंपते हुए कहा- देवीजी, आप मुझ पर मिथ्या आरोप कर रही हैं। अपने विषय में मैंने अवश्य यही निश्चय किया है, कि एकान्त जीवन व्यतीत करूँगा; इसलिए कि आदि से ही सेवा का आदर्श मेरे स़ामने था।
सुखदा ने पूछा- क्या विवाहित जीवन में सेवा-धर्म का पालन असंभव है? या स्त्री इतनी स्वार्थान्ध होती है कि आपके कामों में बाधा डाले बिना रह ही नहीं सकती ? गृहस्थ जितनी सेवा कर सकता है, उतनी एकान्तजीवी कभी नहीं कर सकता क्योंकि वह जीवन के कष्टों का अनुभव नहीं कर सकता।
शांतिकुमार ने विवाद से बचने की चेष्टा करके कहा- यह तो झगड़े का विषय है देवीजी, और तय नहीं हो सकता। मुझे आपसे एक विषय में सलाह लेनी है। आपकी माताजी भी हैं, यह और भी शुभ है। मैं सोच रहा हूँ, क्यों न नौकरी से इस्तीफा देकर सेवाश्रम का काम करूँ ?
सुखदा ने इस भाव से कहा, मानो यह प्रश्न करने की बात ही नहीं- अगर आप सोचते हैं, आप बिना किसी के सामने हाथ फैलाये अपना निर्वाह कर सकते हैं, तो जरूर इस्तीफा दे दीजिए। यों तो काम करनेवाले का भार संस्था पर होता है; लेकिन इससे भी अच्छी बात यह है कि उसकी सेवा में स्वार्थ का लेश भी न हो।
शांतिकुमार ने जिस तर्क से अपना चित्त शांत किया था, वह यहाँ फिर जवाब दे गया। फिर उसी उधेड़-बुन में पड़ गये।
सहसा रेणुका ने कहा- आपके आश्रम में कोई कोष भी है ?
आश्रम में अब तक कोई कोष न था। चन्दा इतना न मिलता था कि कुछ बचत हो सकती। शांतिकुमार ने इस अभाव को मानो अपने ऊपर