एक लांछन समझकर कहा- जी नहीं, अभी तक तो कोष नहीं बन सका, पर मैं युनिवर्सिटी से छुट्टी पा जाऊँ, तो इसके लिए उद्योग करूँ।
रेणुका ने पूछा- कितने रुपये हों, तो आपका आश्रम चलने लगे?
शांतिकुमार ने आशा की स्फूर्ति का अनुभव करके कहा- आश्रम तो एक युनिवर्सिटी भी बन सकता है; लेकिन मुझे तीन-चार लाख रुपये मिल जायें तो मैं उतना ही काम कर सकता हूँ, जितना युनिवर्सिटी में बीस लाख में भी नहीं हो सकता।
रेणका ने मुसकराकर कहा- अगर आप कोई ट्रस्ट बना सकें तो मैं आपकी कुछ सहायता कर सकती हूँ। बात यह है कि जिस सम्पत्ति को अब तक संचती आती थी, उसका अब कोई भोगनेवाला नहीं है। अमर का हाल आप देख ही चुके। सुखदा भी उसी रास्ते पर जा रही है। तो फिर मैं भी अपने लिए कोई रास्ता निकालना चाहती हूँ। मुझे आप गुज़ारे के लिए सौ रुपये महीने ट्रस्ट से दिला दीजिएगा। मेरे जानवरों के खिलाने-पिलाने का भार ट्रस्ट पर होगा।
शांतिकुमार ने डरते-डरते कहा- मैं तो आपकी आज्ञा तभी स्वीकार कर सकता हूँ, जब अमर और सुखदा मुझे सहर्ष अनुमति दें। फिर बच्चे का हक़ भी तो है?
सुखदा ने कहा- मेरी तरफ से इस्तीफा है। और बच्चे के दादा का धन क्या थोड़ा है? औरों की मैं नहीं कह सकती।
रेणुका खिन्न होकर बोली- अमर को धन की परवाह अगर है तो औरों से भी कम। दौलत कोई दीपक तो है नहीं, जिससे प्रकाश फैलता रहे। जिन्हें उसकी ज़रूरत नहीं उनके गले क्यों लगाई जाय । रुपये का भार कुछ कम नहीं होता। मैं खुद नहीं सँभाल सकती। किसी शुभ कार्य में लग जाय, वह कहीं अच्छा। लाला समरकान्त तो मन्दिर और शिवाले की राय देते है; पर मेरा जी उधर नहीं जाता। मन्दिर तो यों ही इतने हो रहे हैं, कि पूजा करनेवाले नहीं मिलते। शिक्षादान महादान है और वह भी उन लोगों में, जिनका समाज ने हमेशा बहिष्कार किया हो। मैं कई दिन से सोच रही हूँ, और आपसे मिलने वाली थी। अभी मैं दो-चार महीने और दुविधे में पड़ी रहती; पर आपके आ जाने से मेरी दुविधाएँ मिट गयीं।