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सुखदा लज्जित होकर बोली--क्या करूँ अम्मां, ऐसी उलझन में पड़ी हुई हूँ, कि कुछ सूझता ही नहीं। बाप-बेटे में बिलकुल नहीं बनती। दादाजी चाहते हैं, वह घर का धन्धा देखें। वह कहते हैं, मुझे इस व्यवसाय से घृणा है ! मैं चली जाती, तो न जाने क्या दशा होती। मुझे बराबर यह खटका लगा रहता है, कि वह देश-विदेश की राह न लें। तुमने मुझे कुएँ में ढकेल दिया और क्या कहूँ।

रेणुका चिन्तित होकर बोली--मैंने तो अपनी समझ में घर-वर दोनों ही देख-भालकर विवाह किया था; मगर तेरी तकदीर को क्या करती ? लड़के से तेरी अब पटती है या वही हाल है ?

सुखदा फिर लज्जित हो गयी। उसके दोनों कपोल लाल हो गये, सिर झुकाकर बोली--उन्हें अपनी किताबों और सभाओं से छुट्टी नहीं मिलती।

'तेरी जैसी रूपवती एक सीधे-सादे छोकरे को भी न सँभाल सकी ? चाल-चलन का कैसा है ?'

सुखदा जानती थी, अमरकान्त में इस तरह की कोई दुर्वासना नहीं है ; पर इस समय वह इस बात को निश्चयात्मक रूप से कह न सकी। उसके नारीत्व पर धब्बा आता था। बोली--मैं किसी के दिल का हाल क्या जानूँ अम्मा! इतने दिन हो गये, एक दिन भी ऐसा न हआ होगा, कि कोई चीज लाकर देते। जैसे चाहूँ रहूँ, उनसे कोई मतलब ही नहीं।

रेणुका ने पूछा--तू कभी कुछ पूछती है, कुछ बनाकर खिलाती है, कभी उसके सिर में तेल डालती है ?

सुखदा ने गर्व से कहा -- जब वह मेरी बात नहीं पूछते, तो मुझे क्या गरज पड़ी है ! वह बोलते हैं, तो मैं भी बोलती हूँ। मुझसे किमी की गुलामी नहीं होगी।

रेणुका ने ताड़ना दी--बेटी, बुरा न मानना, मुझे तो बहुत कुछ तेरा ही दोष दीखता है। तुझे अपने रूप का गर्व है। तू समझती है, वह तेरे रूप पर मुग्ध होकर तेरे पैरों पर सिर रगड़ेगा। ऐसे मर्द होते हैं, यह मैं जानती हूँ; पर वह प्रेम टिकाऊ नहीं होता। न जाने तू क्यों उससे तनी रहती है। मुझे तो वह बड़ा गरीब और बहुत ही विचारशील मालूम होता है। सच कहती हैं, मुझे उस पर दया आती है। बचपन में तो बेचारे की मा मर गयी, विमाता

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कर्मभूमि