लेता। हाफिज हलीम लड़के को भेजने को तैयार थे, रुपये खर्च करने को तैयार थे; लेकिन लड़के का स्वास्थ्य बिगड़ गया, तो वह किसका दामन" पकङेगे। आखिर यहाँ भी सलीम की विजय रही। उसे उसी हलके का चार्ज भी मिला, जहाँ उसका दोस्त अमरकान्त पहले ही से मौजूद था। उस जिले को उसने खुद पसन्द किया।
इधर सलीम के जीवन में एक परिवर्तन हो गया था। हँसोड़ तो उतना ही था; पर उतना शौकीन, उतना रसिक न था। शायरी से भी अब उतना प्रेम न था। विवाह से जो उसे पुरानी अरुचि थी, वह अब बिल्कुल जाती रही थी। यह परिवर्तन एकाएक कैसे हो गया हम नहीं जानते; लेकिन इधर वह कई बार सकीना के घर गया था और दोनों में गुप्त रूप से पत्र-व्यवहार भी हो रहा था। अमर के उदासीन हो जाने पर भी सकीना उसके अतीत प्रेम को कितनी एकाग्रता से पाले हुए थी, इस अनुराग ने सलीम को परास्त कर दिया था। इस ज्योति से अब वह अपने जीवन को आलोकित करने के लिए विकल हो रहा था। अपने मामा से सकीना के उस अपार प्रेम का वृत्तांत सुन-सुनकर वह बहुधा रो दिया करता। उसका कविहृदय जो भ्रमण की भाँति नये-नये पुष्पों के रस लिया करता था, अब संयमित अनुराग से परिपूर्ण होकर उसके जीवन में एक विशाल साधना की सृष्टि कर रहा था।
नैना का विवाह भी हो गया। लाला धनीराम नगर के सबसे धनी आदमी थे। उनके जेठे पुत्र लाला मनीराम बड़े होनहार नौजवान थे। समरकान्त को आशा न थी कि यहाँ सम्बन्ध हो सकेगा क्योंकि धनीराम मन्दिरवाली घटना के दिन से ही इस परिवार को हेय समझने लगे थे; पर समरकान्त की थैलियों ने अन्त में विजय पायी। बड़ी-बड़ी तैयारियाँ हुई, बड़ी धूम-धाम से विवाह हुआ, दूर-दूर से नातेदारों की टोलियाँ आई; लेकिन अमरकान्त न आया और न समरकान्त ने उसे बुलाया। धनीराम ने कहला दिया था कि अमरकान्त विवाह में सम्मिलित हुआ तो बारात द्वार से लौट आयेगी। यह बात अमरकान्त के कानों तक पहुँच गई थी। नैना न प्रसन्न थी, न दुखी थी। वह न कुछ कह सकती थी, न बोल सकती थी। पिता की इच्छा के सामने वह क्या कहती। मनीराम के विषय में तरह-तरह की बातें सुनी थीं-शराबी है, व्यभिचारी है, मूर्ख है, घमण्डी