है; लेकिन पिता की इच्छा के सामने सिर झुकाना उसका कर्तव्य था। अगर समरकान्त उसे किसी देवता की बलिवेदी पर चढ़ा देते, तब भी वह मुँह न खोलती। केवल विदाई के समय वह रोई; पर उस समय भी उसे यह ध्यान रहा कि पिताजी को दुःख न हो। समरकान्त की आँखों में धन ही सबसे मुल्यवान वस्तु थी। नैना को जीवन का क्या अनुभव था? ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का निश्चय ही उसके लिए मान्य था। उसका चित्त सशंक था; पर उसने जो कुछ अपना कर्तव्य समझ रखा था, उसका पालन करते हुए उसके प्राण भी चले जायँ तो उसे दुःख न होगा।
इधर सुखदा और शांतिकुमार का सहयोग दिन-दिन घनिष्ठ होता जाता था। धन का अभाव तो था नहीं, हरेक मुहल्ले में सेवाश्रम की शाखाएँ खुल रही थीं और मादक वस्तुओं का बहिष्कार भी जोरों से हो रहा था। सुखदा के जीवन में अब एक कठोर तप का संचार होता जाता था। वह अब प्रातःकाल और संध्या व्यायाम करती। भोजन में स्वाद से अधिक पोषकता का विचार रखती। संयम और निग्रह ही अब उसको जीवनचर्या के प्रधान अंग थे। उपन्यासों की अपेक्षा अब उसे इतिहास और दार्शनिक विषयों में अधिक आनन्द आता था और उसकी बोलने की शक्ति तो इतनी बढ़ गयी थी कि सुननेवालों को आश्चर्य होता था। देश और समाज की दशा देखकर उसे सच्ची वेदना होती थी और यही वाणी में प्रभाव का मुख्य रहस्य है। इस सुधार के प्रोग्राम में एक बात और आ गई थी। वह थी गरीबों के लिए मकानों की समस्या। अब यह अनुभव हो रहा था कि जब तक जनता के लिये मकानों की समस्या हल न होगी, सुधार का कोई प्रस्ताव सफल न होगा। मगर यह काम चन्दे का नहीं, इसे तो म्युनिसीलिटी ही हाथ में ले सकती थी। पर यह संस्था इतना बड़ा काम हाथ में लेते हुए भी घबराती थी। हाफ़िज हलीम प्रधान थे। लाला धनीराम उप-प्रधान। ऐसे दकियानूसी महानुभावों के मस्तिष्क में इस समस्या की आवश्यकता और महत्त्व को जमा देना कठिन था। दो-चार ऐसे सज्जन तो निकल आये थे, जो जमीन मिल जाने पर दो-चार लाख रुपये लगाने को तैयार थे। उनमें लाला समरकान्त भी थे। अगर चार आने सैकड़े का सूद भी निकलता आये, तो वह सन्तुष्ट थे; मगर प्रश्न था ज़मीन कहाँ से आये। सुखदा का कहना