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'मुश्किल क्या है। दस बँगले गिरा दिये जाँय; तो ज़मीन ही जमीन निकल आयेगी।'

'बँगलों का गिराना आप आसान समझते हैं?'

'आसान तो नहीं समझता; लेकिन उपाय है। शहर के बाहर तो कोई रहेगा नहीं। इसलिये शहर के अंदर ही जमीन निकालनी पड़ेगी। बाज मकान इतने लम्बे-चौड़े हैं कि उनमें एक हजार आदमी फैलकर रह सकते हैं। आपही का मकान क्या छोटा है। इसमें दस ग़रीब परिवार बड़े मजे में रह सकते हैं।'

सुखदा मसकराई--आप तो हम लोगों पर ही हाथ साफ़ करना चाहते हैं!

'जो राह बताये उसे आगे चलना पड़ेगा।'

'मैं तयार हूँ; लेकिन म्युनिसिपैलिटी के पास कुछ प्लाट तो खाली होगे?

हाँ हैं, क्यों नहीं। मैंने उन सबों का पता लगा लिया है। मगर हाफिज जी फ़रमाते हैं, उन प्लाटों की बातचीत तय हो चुकी है।'

सलीम ने मोटर से उतरकर शांतिकुमार को पुकारा। उन्होंने उसे अन्दर बुला लिया और पूछा--किधर से आ रहे हो?

सलीम ने प्रसन्न मुख से कहा--कल रात को चला जाऊँगा। सोचा, आपसे रुखसत होता चलूं। इसी बहाने देवीजी से भी नियाज़ हासिल हो गया।

शांतिकुमार ने पूछा--अरे तो यों ही चले जाओगे भाई क्या? कोई जलसा दावत कुछ नहीं? वाह!

'जलसा तो कल शाम को है। कार्ड तो आपके यहाँ भेज दिया था। मगर आपसे तो जलसे की मुलाकात काफ़ी नहीं।'

'तो चलते-चलाते हमारी थोड़ी-सी मदद करो। दक्खिन तरफ म्युनिसिपैलटी के जो प्लाट हैं, वह हमें दिला दो, मुफ्त में।'

सलीम का मुख गंभीर हो गया। बोला--उन प्लाटों की तो शायद बातचीत हो चुकी है। कई मेम्बर खुद बेटों और बीबियों के नाम से खरीदने को मुंह खोले बैठे हैं।

सुखदा विस्मित हो गयी--अच्छा! भीतर ही भीतर यह कपट-लीला भी होती है? तब तो आपकी मदद की और जरूरत है। इस मायाजाल को तोड़ना आपका कर्तव्य है।

कर्मभूमि
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