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सलीम ने आँखें चुराकर कहा--अब्बाजान इस मुआमले में मेरी एक न सुनेंगे। और हक़ यह है कि जो मुआमला तय हो चुका, उसके बारे में कुछ ज़ोर देना भी तो मुनासिब नहीं।

यह कहते हुए उसने सुखदा और शांतिकुमार से हाथ मिलाया और दोनों से कल शाम के जलसे में आने का आग्रह करके चला गया। वहाँ बैठने में अब उसकी खैरियत न थी।

शांतिकुमार ने कहा--देखा आपने! अभी जगह पर गये नहीं पर मिजाज में अफसरी की बू आ गयी। कुछ अजीब तिलिस्म है कि जो उसमें कदम रखता है, उस पर जैसे नशा हो जाता है। इस तजवीज के यह पक्के समर्थक थे; पर आज कैसे निकल गये। हाफ़िज़जी से अगर जोर देकर कहें तो मुमकिन नहीं कि वह राजी न हो जायें।

सुखदा के मुख पर आत्मगौरव की झलक आ गई--हमें न्याय की लड़ाई लड़नी है। न्याय हमारी मदद करेगा। हम और किसी की मदद के मुहताज नहीं है।

इसी समय लाला समरकान्त आ गये। शांतिकूमार को बैठे देखकर जरा झिझके। फिर पूछा--कहिए डाक्टर साहब, हाफिज़जी से क्या बात चीत हुई?

शांतिकुमार ने अब तक जो कुछ किया था, वह सब कह सुनाया।

समरकान्त ने असन्तोष का भाव प्रगट करते हुए कहा--आप लोग विलायत के पढ़े हए साहब, मैं भला आपके सामने क्या मुंह खोल सकता है, लेकिन आप जो चाहें कि न्याय और सत्य के नाम पर आपको ज़मीन मिल जाय, तो चुपके हो रहिए। इस काम के लिए दस-बीस-हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे--हरेक मेम्बर से अलग अलग मिलिए, देखिए, किस मिजाज का, किस विचार का, किस रंग-ढंग का आदमी है। उसी तरह काबू में लाइए--खुशामद से राजी हो खुशामद से, चाँदी से राजी हो चाँदी से, दुआ-तावीज, जन्तर-मन्तर, जिस तरह काम निकले, उस तरह निकालिये। हाफ़िजजी से मेरी पुरानी मुलाकात है। पच्चीस हजार की थैली उनके मामा के हाथ घर में भेज दो, फिर देखें कैसे जमीन नहीं मिलती। सरदार कल्यानसिंह को नये मकानों का ठीका देने का वादा कर लो, वह काबू में आ जायेंगे।

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कर्मभूमि