दुबेजी को पाँच तोले चन्द्रोदय भेंट करके पटा सकते हो। खन्ना से योगाभ्यास की बातें करो और किसी सन्त से मिला दो, ऐसा सन्त हो, जो उन्हें दो-चार आसन सिखा दे। राय साहब धनीराम के नाम पर अपने नये मुहल्ले का नाम रख दो। उनसे कुछ रुपये भी मिल जायेंगे। यह है काम करने का ढंग। रुपये की तरफ़ से निश्चिन्त रहो। बनियों को चाहे बदनाम कर लो पर परमार्थ के काम में बनिये ही आगे आते हैं। दस लाख का बीमा तो मैं लेता हैं। कई भाइयों के तो बोट ले आया। मुझे तो रात को नींद नहीं आती। यही सोचा करता हूँ कि कैसे यह काम सिद्ध हो। जब तक काम सिद्ध न हो जायगा, मुझे ज्वर-सा चढ़ा रहेगा।
शांतिकुमार ने दबी आवाज से कहा--यह फन तो मुझे अभी सीखना पड़ेगा सेठजी। मुझे न रक़म खाने का तजरबा है, न खिलाने का। मुझे तो किसी भले आदमी से यह प्रस्ताव करते शर्म आती है। यह खयाल भी आता है कि वह मुझे कितना खुदग़रज समज्ञ रहा होगा। डरता हूँ, कहीं घुड़क न बैठे।
समरकान्त ने जैसे कुत्ते को दुतकारकर कहा--तो फिर तुम्हें ज़मीन मिल चुकी। सेवाश्रम के लड़के पढ़ाना दूसरी बात है, मामले पटाना दूसरी बात है। मैं खुद पटाऊँगा।
सुखदा ने जैसे आहत होकर कहा--नहीं, हमें रिश्वत देना मंजूर नहीं। हम न्याय के लिए खड़े हैं। हमारे पास न्याय का बल है। हम उसी बल से विजय पायेंगे।
समरकान्त ने निराश होकर कहा---तो तुम्हारी स्कीम चल चुकी।
सुखदा ने कहा--स्कीम तो चलेगी, हाँ शायद देर में चले, या धीमी चाल से चले, पर रुक नहीं सकती। अन्याय के दिन पूरे हो गये।
'अच्छी बात है। मैं भी देखूगा।'
समरकान्त झल्लाये हुए बाहर चले गये। उनकी सर्वज्ञता को जो स्वीकार न करे, उससे वह दूर भागते थे।
शांतिकुमार ने खुश होकर कहा--सेठजी भी विचित्र जीव है। इनकी निगाह में जो कुछ है, वह रुपया। मानवता भी कोई वस्तु है, इसे शायद यह मान ही नहीं।
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