सुखदा की आँखें सगर्व हो गयीं-- इनकी बातों पर न जाइए डाक्टर साहब! इनके हृदय में जितनी दया, जितनी सेवा है, वह हम दोनों में मिलकर भी न होगी। इनके स्वभाव में कितना अन्तर हो गया है, इसे आप नहीं देखते। डेढ़ साल पहले बेटे ने इनसे यह प्रस्ताव किया होता, तो आग हो जाते। अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाना साधारण बात नहीं है, और विशेषकर उस आदमी के लिए, जिसने एक-एक कौड़ी को दाँतों से पकड़ा हो। पुत्र-स्नेह ही ने यह कायापलट की है। मैं इसी को सच्चा वैराग्य कहती हूँ। आप पहले मेम्बरों से मिलिए। अगर जरूरत समझिए तो मुझे भी ले लीजिए। मुझे तो आशा है, हमें बहुमत मिलेगा। नहीं, आप अकेले न जायें। कल सबेरे आइए तो हम दोनों चलें। दस बजे रात तक लौट आयेंगे, इस वक्त मझे ज़रा सकीना से मिलना है। सुना है, महीनों से बीमार है। मुझे तो उस पर श्रद्धा हो गयी है। समय मिला, तो उधर से ही नैना से मिलती आऊँगी।
डाक्टर साहब ने कुरसी से उठते हुए कहा--उसे गये तो दो महीने हो गये, आयेगी कब तक?
'यहाँ से तो कई बार बुलाया गया, सेठ धनीराम बिदा ही नहीं करते।
'नैना खुश तो है?'
'मैं तो कई बार मिली; पर अपने विषय में उसने कुछ नहीं कहा। पूछा तो यही बोली-मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। पर मुझे तो वह प्रसन्न नहीं दिखी। वह शिकायत करनेवाली लड़की नहीं है। अगर वह लोग उसे लातों मारकर निकालना भी चाहें तो घर से न निकलेगी, और न किसी से कुछ कहेगी।'
शांतिकुमार की आँखें सजल हो गयीं-उससे कोई अप्रसन्न हो सकता है, मैं तो इसको कल्पना ही नहीं कर सकता।
सुखदा मुसकराकर बोली-उसका भाई कुमार्गी है, क्या यह उन लोगों की अप्रसन्नता के लिए काफी नहीं?
'मैंने तो सुना, मनीराम पक्का शोहदा है।'
'नैना के सामने आपने यह शब्द कहा होता, तो आपसे लड़ बैठती।'
'मैं एक बार मनीराम से मिलूंगा ज़रूर।'