भी अच्छे बन जायें। इधर काम अच्छा मिला है, और मजूरी भी अच्छी मिल रही है। मगर सब इसी टीम-टाम में उड़ जाती है। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक ईसाइन रहती है, वह रोज सुबह को पढ़ाने आती है। हमारे ज़माने में तो बेटा सिपारा और रोजा-नमाज का रिवाज था। कई जगह से शादी के पैग़ाम आये...
सकीना ने कठोर होकर कहा--अरे, तो अब चुप भी रहोगी। हो तो चुका। आपकी क्या खातिर करूंँ बहन! आपने इतने दिनों बाद मुझ बदनसीब को याद तो किया!
सुखदा ने उदार मन से कहा—याद तो तुम्हारी बराबर आती रहती थी, और आने को जी भी चाहता था; पर डरती थी, तुम दिल में न जाने क्या समझो। यह तो आज मियाँ सलीम से मालूम हुआ कि तुम्हारी तबीअत अच्छी नहीं है। जब हम लोग तुम्हारी खिदमत करने को हर तरह हाज़िर है तो तुम नाहक क्यों जान देती हो।
सकीना जैसे शर्म को निगलकर बोली-बहन, मैं चाहे मर जाऊँ, पर इस गरीबी को मिटाकर छोङूंगी। मैं इस हालत में न होती, तो बाबूजी को क्यों मुझ पर रहम आता, क्यों वह मेरे घर आते; क्यों उन्हें बदनाम होकर घर से भागना पड़ता? सारी मुसीबत की जड़ ग़रीबी है। इसका खातमा करके छोङूंगी।
एक क्षण के बाद उसने पठानिन से कहा--ज़रा जाकर किसी तम्बोलिन से पान ही लगवा लाओ। अब और क्या खातिर करें आपकी।
बुढ़िया को इस बहाने से टालकर सकीना धीमे स्वर में बोली-यह मुहम्मद सलीम का खत है। आप जब मुझ पर इतना रहम करती हैं, तो आपसे क्या पर्दा करूँ! जो होना था, वह तो हो ही गया। बाबूजी यहाँ कई बार आये। खुदा जानता है जो उन्होंने कभी मेरी तरफ़ आँख उठाई हो। में भी उनका अदब करती भी। हाँ उनकी शराफ़त का असर जरूर मेरे दिल पर होता था। एकाएक मेरी शादी का जिक्र सुनकर बाबूजी एक नशे की-सी हालत में आये और मुझसे मुहब्बत जाहिर की। खुदा गवाह है बहन, मै एक हर्फ़ भी ग़लत नहीं कह रही हूँ। उनकी प्यार की बातें सुनकर मुझे भी सुध-बुध भूल गयी। मेरी जैसी औरत के साथ ऐसा