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मिली वह डाइन। बाप हो गया शत्रु। घर को अपना घर न समझ सका। जो हृदय चिन्ताभार से इतना दबा हुआ हो, उसे पहले स्नेह और सेवा से पोला करने के बाद तभी प्रेम का बीज बोया जा सकता है।

सुखदा चिढ़कर बोली--वह चाहते हैं मैं उनके साथ तपस्विनी बनकर रहूँ। रूखा-सूखा खाऊँ, मोटा-झोटा पहनूँ और वह घर से अलग होकर मेहनत और मजूरी करें। मुझसे यह न होगा, चाहे सदैव के लिए उनसे नाता ही टूट जाय। वह अपने मन की करेंगे, मेरे आराम तकलीफ की बिल्कुल परवाह न करेंगे, तो मैं भी उनका मुँह न जोहूँगी।

रेणुका ने तिरस्कार-भरी चितवनों से देखा और बोली--और अगर आज लाला समरकान्त का दीवाला पिट जाय?

सुखदा ने इस सम्भावना की कभी कल्पना ही न की थी।

विमूढ़ होकर बोली--दीवाला क्यों पिटने लगा?

'ऐसा सम्भव तो है।'

सुखदा ने माँ की संपत्ति का आश्रय न लिया। वह न कह सकी 'तुम्हारे पास जो कुछ है, वह भी तो मेरा ही है।' आत्मसम्मान ने उसे ऐसा न कहने दिया। माँ के इस निर्दय प्रश्न पर झुंझलाकर बोली--जब मौत आती है तो आदमी मर जाता है। जान-बूझकर आग में नहीं कूदा जाता।

बातों-बातों में माता को ज्ञात हो गया कि उनकी सम्पत्ति का वारिस आनेवाला है। कन्या के भविष्य के विषय में उसे बड़ी चिन्ता हो गयी थी। इस संवाद ने उस चिन्ता का शमन कर दिया।

उसने आनन्द से विह्वल होकर सुखदा को गले लगा लिया।


अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुंधली-सी और इसलिए अत्यन्त मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थीं। उसका वेदनामय बालरुदन सुनकर जैसे उसकी माता ने रेणुका देवी के रूप में स्वर्ग से आकर उसे गोद में उठा लिया। बालक अपना रोना-धोना भूल गया

कर्मभूमि
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