ज़बान बन्द हो गयी। नैना अपने कमरे में बैठी हुई आवज का इन्तजार कर रही थी, उसकी गरज सुनकर समझ गयी कि कोई न कोई बात हो गयी। दौड़ी हुई आकर बड़े कमरे के द्वार पर खड़ी हो गयी।
'मैं तुम्हारी राह देख रही थी भाभी, तुम यहाँ कैमे बैठ गयीं?'
सुखदा ने उसकी ओर ध्यान न देकर उसी रोष में कहा---धन कमाना अच्छी बात है; पर इज्जत बेचकर नहीं। और विवाह का उद्देश्य वह नहीं है जो आप समझते हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि स्वार्थ में पड़कर आदमी का कहाँ तक पतन हो सकता है।
नैना ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे उठाती हुई बोली-अरे, तो यहाँ से उठोगी भी।
सुखदा और उत्तेजित होकर बोली--में क्यों अपने स्वामी के साथ नहीं गयी? इसलिए कि वह जितने त्यागी हैं, मैं उतना त्याग नहीं कर सकती थी। आपको अपना व्यवसाय और धन अपनी पत्नी के आत्मसम्मान से प्यारा है। उन्होंने दोनों ही को लात मार दी। आपने गलीकूचों की जो बात कही, इसका 'अगर वही अर्थ है जो मैं समझती हूँ, तो वह मिथ्या कलंक है। आप अपने रुपये कमाते जाइए; आपका उस महान आत्मा पर छींटे उड़ाना छोटे मुंह बड़ी बात है।
सुखदा लोहार की एक को सोनार की सौ से बराबर करने की असफल चेष्टा कर रही थी। वह एक वाक्य उसके हृदय में जितना चुभा, वैसा पैना कोई वाक्य वह न निकाल सकी।
नैना के मुंह से निकला--भाभी, तुम किसके मुंह लग रही हो?
मनीराम क्रोध से मुट्ठी बाँधकर बोला--में अपने ही घर में अपना यह अपमान नहीं सह सकता।
नैना ने भावज के सामने हाथ जोड़कर कहा--भाभी, मुझ पर दया करो। ईश्वर के लिए यहाँ से चलो।
सुखदा ने पूछा--कहाँ हैं सेटजी, ज़रा मझे उनसे दो-दो बातें करनी हैं।
मनीराम ने कहा—आप इस वक्त उनसे नहीं मिल सकतीं। उनकी तबीअत ठीक नहीं है और ऐसी बातें सुनना बह पसन्द न करेंगे।