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और उस ममता-भरी गोद में मुंह छिपाकर दैवी सुख लूटने लगा। अमरकान्त नहीं-नहीं करता रहता और माता उसे पकड़कर उसके आगे मेवे और मिठाइयां रख देती। उससे इनकार न करते बनता। वह देखता, माता उसके लिए कभी कुछ पका रही है कभी कुछ और उसे खिलाकर कितनी प्रसन्न होती है, तो उसके हृदय में श्रद्धा की एक लहर-सी उठने लगती। वह कालेज से लौटकर सीधे रेणुका के पास जाता। वहाँ उसके लिए जलपान रखे रेणुका उसकी बाट जोहती रहती। प्रातः का नाश्ता भी वह वहीं करता इस मातृ-स्नेह से उसे तृप्ति ही न होती थी। छुट्टियों के दिन वह प्रायः दिन भर रेणुका ही के यहाँ रहता। उसके साथ कभी-कभी नैना भी चली जाती। वह खासकर पशु-पक्षियों की क्रीड़ा देखने जाती थी।

अमरकान्त के कोष में वह स्नेह आया, तो उसकी वह कृपणता जाती रही। सुखदा उसके समीप आने लगी। उसकी विलासिता से अब उसे उतना भय न रहा। रेणुका के साथ उसे लेकर वह सैर-तमाशे के लिए भी जाने लगा। रेणुका दसवें-पाँचवें उसे दस-पांच रुपये नजर दे देतीं। उसके सप्रेम आग्रह के सामने अमरकान्त की एक न चलती। उसके लिए नये-नये सूट बने, नये-नये जूते आये, मोटर साइकिल आयी, सजावट के सामान आये। पाँच ही छ: महीने में वह विलासिता का द्रोही, वह सरल जीवन का उपासक, अच्छा खासा रईसजादा बन बैठा, रईसजादों के भावों और विचारों से भरा हुआ; उतना ही निर्द्वन्द्व और स्वार्थी। उसकी जेब में दस-बीस रुपये हमेशा पड़े रहते। खुद खाता, मित्रों को खिलाता और एक की जगह दो खर्च करता। वह अध्ययनशीलता जाती रही। ताश और चौसर में ज्यादा आनन्द आता। हाँ, जलसों में उसे अब और अधिक उत्साह हो गया। वहाँ उसे कीर्ति-लाभ का अवसर मिलता था। बोलने की शक्ति उसमें पहले भी बुरी न थी। अभ्यास से और भी परिमार्जित हो गयी। दैनिक समाचार और सामयिक साहित्य से भी उसे रुचि थी, विशेषकर इसलिए कि रेणुका रोज़-रोज़ की खबर उससे पढ़वाकर सुनती थीं।

दैनिक समाचार-पत्रों के पढ़ने से अमरकान्त के राजनैतिक ज्ञान का विकास होने लगा। देशवासियों के साथ शासक-मण्डल की कोई अनीति देखकर उसका खून खौल उठता था। जो संस्थाएँ राष्ट्रीय उत्थान के लिए

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कर्मभूमि