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अच्छा न बताओ भाई, कोई जबरदस्ती है।'

यह कहकर वह उठकर ऊपर चली। नैना ने उसका हाथ पकड़कर कहा--अब भाभी कहाँ जाती हो, कसम तो रखा चुकी! बैठकर सुनती जाओ। आज तक मेरी और उनकी एक वार भी बोल-चाल नहीं हुई।

सुखदा ने चकित होकर कहा--अरे! सच कहो।

नैना ने व्यथित हृदय से कहा- हाँ बिलकुल सच है भाभी! जिस दिन मैं गयी, उस दिन रात को वह गले में हार डाले, आँखें नशे में लाल, उन्मत्त की भाँति पहुँचे, जैसे कोई प्यादा आसामी से महाजन के रुपये वसूल करने जाय और मेरा धूंँघट हटाते हुए बोले--मैं तुम्हारा धूंँघट देखने नहीं आया हूँ, और न मुझे यह ढकोसला पसन्द है। आकर इस कुरसी पर बैठो। मैं उन 'दकियानूसी मर्दो में नहीं हूँ, जो यह गुड़ियों के खेल खेलते हैं। तुम्हें हँसकर 'मेरा स्वागत करना चाहिए था और तुम धूँघट निकाले बैठी हो, मानो तुम मेरा मुंह नहीं देखना चाहतीं। उनका हाथ पड़ते ही मेरी देह में जैसे किसी सर्प ने काट लिया। मैं सिर से पाँव तक सिहर उठी। इन्हें मेरी देह को स्पर्श 'करने का क्या अधिकार है? यह प्रश्न एक ज्वाला की भाँति मेरे मन में उठा। मेरी आँखों से आँसु गिरने लगे। वह सारे स्वप्न जो मैं कई दिनों से देख रही थी, जैसे उड़ गये। इतने दिनों से जिस देवता की उपासना कर रही थी, क्या उसका यही रूप था! इसमें न देवत्व था, न मनुष्यत्व था, केवल मदांधता थी, अधिकार का गर्व था और हृदयहीन निर्लज्जता थी। मैं श्रद्धा के थाल में अपनी आत्मा का सारा अनुराग, सारा आनन्द, सारा प्रेम स्वामी के चरणों पर समर्पित करने को बैठी हुई थी। उनका यह रूप देखकर, जैसे थाल मेरे हाथ से छुटकर गिर पड़ा और उसका धूप-दीप-नैवेद्य जैसे भूमि पर बिखर गया। मेरी चेतना का एक-एक रोम, जैसे इस अधिकार गर्व से विद्रोह करने लगा। कहाँ था वह आत्म-समर्पण का भाव, जो मेरे अणु-अणु में व्याप्त हो रहा था। मेरे जी में आया, मैं भी कह दूंँ कि तुम्हारे साथ मेरे विवाह का यह आशय नहीं है कि मैं तुम्हारी लौंडी हूँ! तुम मेरे स्वामी हो; तो मैं भी तुम्हारी स्वामिनी हूँ? प्रेम के शासन के सिवा मैं कोई दूसरा शासन स्वीकार नहीं कर सकती और न चाहती हूँ कि तुम स्वीकार करो; लेकिन जी ऐसा जल रहा था कि मैं इतना तिरस्कार भी न कर सकी। तुरन्त वहाँ से उठकर

कर्मभूमि
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