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सुखदा उत्तेजित होकर बोली--नहीं, मैं इतनी सहनशील नहीं हूँ। लाला धनीराम और उनके सहयोगियों को मैं चैन की नींद न सोने दूंगी। इतने दिनों सब को खुशामद करके देख लिया। अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। फिर दस-बीस प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी, तब लोगों की आँखें खुलेंगी। मैं इन लोगों का शहर में रहना मुश्किल कर दूंगी।

शांतिकुमार लाला धनीराम से जले हुए थे। बोले--यह उन्हीं सेठ धनीराम के हथकण्डे हैं।

सुखदा ने द्वेष-भाव से कहा--किसी राम के हथकण्डे हों, मुझे इसकी परवाह नहीं। जब बोर्ड ने एक निश्चय किया, तो उसकी जिम्मेदारी एक आदमी के सिर नहीं, सारे बोर्ड पर है! मैं इन महल-निवासियों को दिखा दूंगी कि जनता के हाथों में भी कुछ बल है। लाला धनीराम जमीन के उन टुकड़ों पर अपने पाँव जमा न सकेंगे।

शांतिकुमार ने कातर भाव से कहा--मेरे ख्याल में तो इस वक्त प्रोपेगंडा करना ही काफी है। अभी मामला तूल खींच जायगा।

ट्रस्ट बन जाने के बाद से शांतिकुमार किसी जोखिम के काम में आगे कदम उठाते हुए घबराते थे। अब उनके ऊपर एक संस्था का भार था और और अन्य साधकों की भांति वह भी साधना को ही सिद्धि समझने लगे थे। अब उन्हें बात-बात में बदनामी और अपनी संस्था के नष्ट हो जाने की शंका होती थी।

सुखदा ने उन्हें फटकार बतायी--आप क्या बातें कर रहे हैं डाक्टर साहब! मैंने इन पढ़े-लिखे स्वार्थियों को खूब देख लिया! मुझे अब मालूम हो गया कि यह लोग केवल बातों के शेर हैं। मैं भी उन्हें दिखा दूंगी कि जिन गरीबों को तुम अब तक कुचलते आये हो, वहीं अब सांप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जायेंगे। अब तक यह लोग उनसे रिआयत चाहते थे, अब अपना हक माँगेंगे। रिआयत न करने का उन्हें अख्तियार है, पर हमारे हक से हमें कौन वंचित रख सकता है। रिआयत के लिए कोई जान नहीं देता; पर हक के लिए जान देना सब जानते हैं। मैं भी देखूंगी, लाला धनीराम और उनके पिट्ठू कितने पानी में हैं।

यह कहती हई सुखदा पानी बरसते में कमरे से निकल आयी।

कर्मभूमि
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