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एक मिनट के बाद शांतिकुमार ने नैना से पूछा--कहां चली गयीं? बहुत जल्द गरम हो जाती हैं।

नैना ने इधर-उधर देखकर कहार से पूछा, तो मालूम हुआ, सुखदा बाहर चली गयी। उसने आकर शांतिकुमार से कहा।

शांतिकुमार ने विस्मित होकर कहा--इस पानी में कहाँ गयी होंगी। मैं डरता हूँ, कहीं हड़ताल-बड़ताल न कराने लगें। तुम तो वहाँ जाकर मुझे भूल गयीं नैना, एक पत्र भी न लिखा।

एकाएक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनके मुँह से एक अनुचित बात निकल गयी है। उन्हें नैना से यह प्रश्न न पूछना चाहिए था। इसका वह जाने मन में क्या आशय समझे। उन्हें यह मालूम हुआ, जैसे कोई उनका गला दबाये हुए है। वह वहाँ से भाग जाने के लिए रास्ता खोजने लगे। वह अब यहाँ एक क्षण भी नहीं बैठ सकते। उनके दिल में हलचल होने लगी, कहीं नैना अप्रसन्न होकर कुछ कह न बैठे। ऐसी मूर्खता उन्होंने कैसे कर डाली! अब तो उनकी इज्जत ईश्वर के हाथ है!

नैना का मुख लाल हो गया। वह कुछ जवाब न देकर लल्लू को पुकारती हुई कमरे से निकल गई। शांतिकुमार मूर्तिवत् बैठे रहे। अन्त को वह उठकर सिर झुकाये इस तरह चले, मानों जूते पड़ गये हों। नैना का वह आरक्त मुख-मण्डल एक दीपक की भाँति उनके अन्तःपट को जैसे जलाये डालता था।

नैना ने सहृदयता से कहा--कहाँ चले डाक्टर साहब,पानी तो निकल जाने दीजिए!

शांतिकुमार ने कुछ बोलना चाहा; पर शब्दों की जगह कण्ठ में जैसे नमक का डला पड़ा हुआ था। वह जल्दी से बाहर चले गये, इस तरह लड़खड़ाते हुए कि मानो अब गिरे, तब गिरे। आंखों में आँसूओं का सागर उमड़ा हुआ था।


१२

अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। सन्ध्या से पहले सन्ध्या हो गयी थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबन्ध कर रही थी

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कर्मभूमि