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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२६६

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कलई खोल दूँगा। घर में बैठकर बोतल के बोतल उड़ा जाते हो और यहाँ आकर सेखी बघारते हो।

मेहतरों का जमादार मतई खड़ा होकर अपनी जमादारी की शान दिखाकर बोला--पंचो, यह बखत बादहवाई बातें करने का नहीं। जिस काम के लिए देवीजी ने बुलाया है, उसको देखो और फैसला करो कि अब हमें क्या करना है। उन्हीं बिलों में पड़े सड़ते रहें, या चलकर हाकिमों से फरियाद करें।

सुखदा ने विद्रोह-भरे स्वर में कहा--हाकिमों से जो कुछ कहना-सुनना था कह-सुन चुके, किसी ने भी कान न दिया। छ: महीने से यही कहा-सुनी हो रही है। जब अब तक उसका कोई फल न निकला, तो अब क्या निकलेगा। हमने आरजू-मिन्नत से काम निकालना चाहा था; पर मालूम हुआ, सीधी उँगली से घी नहीं निकलता। हम जितना दबेंगे, यह बड़े आदमी हमें उतना ही दबायेंगे। आज तुम्हें तय करना है कि तुम अपने हक के लिए लड़ने को तैयार हो या नहीं।

चमारों का मुखिया सुमेर लाठी टेकता, मोटा चश्मा लगाये पोपले मुँह से बोला--अरज-मारूद करने के सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं। हमारा क्या बस है?

मुरली खटिक ने बड़ी-बड़ी मूछों पर हाथ फेरकर कहा--बस कैसे नहीं है। हम आदमी नहीं है कि हमारे बाल-बच्चे नहीं है। किसी को तो महल और बँगला चाहिए, हमें कच्चा घर भी न मिले। मेरे घर में पाँच जने हैं। उनमें से चार आदमी महीने भर से बीमार है। उस काल-कोठरी में बीमार न हों, तो क्या हों। सामने से गन्दा नाला बहता है। साँस लेते नाक-फटती है।

ईदू कुँजड़ा अपनी झुकी हुई कमर को सीधी करने की चेष्टा करते हुए बोला--अगर मुकद्दर में आराम करना लिखा होता, तो हम भी किसी बड़े आदमी के घर न पैदा होते? हाफिज हलीम आज बड़े आदमी हो गये हैं, नहीं मेरे सामने जूते बेचते थे। लड़ाई में बन गये। अब रईसों के ठाठ हैं। सामने चला जाऊँ, तो पहचानेंगे भी नहीं। नहीं तो पैसे-धेले की मूली-तुरई उधार ले जाते थे। अल्लाह बड़ा कारसाज है। अब तो लड़का भी हाकिम हो गया है। क्या पूछना है।

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कर्मभूमी