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जंगली घोसी पूरा कालादेव था, शहर का मशहूर पहलवान। बोला---- मैं तो पहले ही जानता था, कुछ होना-हवाना नहीं है। अमीरों के सामने हमें कौन पूछता है।

अमीर बेग पतली, लम्बी गरदन निकालकर बोला--बोर्ड के फैसले की अपील तो कहीं होती होगी। हाईकोर्ट में अपील करनी चाहिए। हाईकोर्ट न सुने तो बादशाह से फरियाद की जाय।

सुखदा ने मुसकराकर कहा--बोर्ड के फैसले की अपील वही है, जो इस 'वक्त तुम्हारे सामने हो रही है। आप ही लोग हाईकोर्ट है, आप ही लोग जज हैं। बोर्ड अमीरों का मुंह देखता है। गरीबों के मुहल्ले खोद-खोदकर फेंक दिये जाते हैं, इसलिए कि अमीरों के महल बने। ग़रीबों को दस-पाँच रुपये 'मुआवजा देकर उसी जमीन के हजारों वसूल किये जाते हैं। उस रुपये से अफ़सरों को बड़ी-बड़ी तनख्वाह दी जाती है। जिस जमीन पर हमारा दावा था, वह लाला धनीराम को दे दी गयी। वहाँ उनके बँगले बनेंगे। बोर्ड को रुपये प्यारे हैं, तुम्हारी जान को उसकी निगाह में कोई कीमत नहीं। इन स्वार्थियों से इंसाफ की आशा छोड़ दो। तुम्हारे पास कितनी शक्ति है, इसका उन्हें खयाल नहीं है। वे समझते हैं, यह ग़रीब लोग हमारा कर ही क्या सकते हैं। मैं कहती हूँ, तुम्हारे ही हाथों में सब कुछ है। हमें लड़ाई नहीं करनी है, फ़साद नहीं करना है। सिर्फ़ हड़ताल करना है यह दिखाने के लिए 'कि तुमने बोर्ड के फैसले को मंजूर नहीं किया, और यह हड़ताल एक-दो दिन की नहीं होगी। यह उस वक्त तक रहेगी, जब तक बोर्ड अपना फैसला रद्द करके वह ज़मीन न दे दे। मैं जानती हूँ, ऐसी हड़ताल करना आसान नहीं है। आप लोगों में बहुत ऐसे हैं जिनके घर में एक दिन का भी भोजन नहीं है; मगर यह भी जानती हूँ, कि बिना तकलीफ़ उठाये आराम नहीं मिलता।

सुमेर की जूते की दूकान थी। तीन-चार चमार नौकर थे। खुद जूते काट दिया करता था मजूरी से पूंजीपति बन गया था। घासवालों और साईसों को सूद पर रुपये भी उधार दिया करता था। मोटी ऐनकों के पीछे से बिज्जू की भाँति ताकता हुआ बोला--हड़ताल होना तो हमारी बिरादरी में मुश्किल है बहूजी! मैं आपका गुलाम हूँ और जानता हूँ कि आज जो कुछ

कर्मभूमि
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