-करेंगी, हमारी ही भलाई के लिए करेंगी; पर हमारी बिरादरी में हड़ताल होना मुश्किल है। बेचारे दिन भर घास काटते हैं, साँझ को बेचकर आटा-दाल जुटाते हैं, तब कहीं चूल्हा जलता है। कोई सहीस है, कोई कोचवान, बेचारों की नौकरी जाती रहेगी। अब तो सभी जातिवाले सहीसी, कोचवानी करते है। उनकी नौकरी दूसरे उठा लें, तो बेचारे कहाँ जायेंगे।
सुखदा विरोध सहन न कर सकती थी। इन कठिनाइयों का उसकी निगाह में कोई मूल्य न था। तिनककर बोली--तो क्या तुमने समझा था कि बिना कुछ किये-धरे अच्छे मकान रहने को मिल जायेंगे? संसार में जो अधिक से अधिक कष्ट सह सकता है, उसी की विजय होती है।
मतई जमादार ने कहा--हड़ताल से नुकसान तो सभी का होगा, क्या तुम हुए, क्या हम हुए; लेकिन बिना धुएँ के आग तो नहीं जलती। बहूजी के सामने हम लोगों ने कुछ न किया, तो समझ लो, जनम-भर ठोकर खानी पड़ेगी फिर ऐसा कौन है, जो हम गरीबों का दुख-दरद समझेगा। जो कहीं नौकरी चली जायेगी, तो नौकर तो हम सभी हैं। कोई सरकार का नौकर है, कोई रहीस का नौकर है। हमको यहाँ कौल-कसम भी कर लेनी होगी कि जब तक हड़ताल रहे, कोई किसी की जगह पर न जाय, चाहे भूखों मर भले ही जाय।
सुमेर ने मतई को झिड़क दिया--तुम जमादार बात समझते नहीं, बीच में कूद पड़ते हो। तुम्हारी और बात है, हमारी और बात है। हमारा काम सभी करते हैं, तुम्हारा काम और कोई नहीं कर सकता।
मैकू ने सुमेर का समर्थन किया--यह तुमने बहुत ठीक कहा सुमेर चौधरी! हमीं को देखो। अब पढ़े-लिखे आदमी धुलाई का काम करने लगे हैं। जगह-जगह कम्पनी खुल गयी है। गाहक के यहाँ पहुँचने में एक दिन की भी देर हो जाती है, तो वह कपड़े कम्पनी में भेज देता है। हमारे हाथ से गाहक निकल जाता है। हड़ताल दस-पाँच दिन चली, तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जायगा। अभी पेट की रोटियाँ तो मिल जाती हैं। तब तो रोटियों के भी लाले पड़ जायेंगे।
मुरली खटिक ने ललकारकर कहा--जब कुछ करने का बूता नहीं तो लड़ने किस बिरते पर चले थे? क्या समझते थे, रो देने से दूध मिल जायगा।