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उद्योग कर रही थीं, उनसे उसे सहानुभूति हो गयी। वह अपने नगर की कांग्रेस कमेटी का मेम्बर बन गया और उसके कार्य-क्रम में भाग लेने लगा।

एक दिन कालेज के कुछ छात्र देहातों की आर्थिक दशा की जाँच-पड़ताल करने निकले। सलीम और अमर भी चले। अध्यापक डा॰ शान्तिकुमार उनके नेता बनाये गये। कई गाँवों की पड़ताल करने के बाद मंडली संध्या समय लौटने लगी, तो अमर ने कहा--मैंने कभी अनुमान न किया था कि हमारे कृषकों की दशा इतनी निराशाजनक है।

सलीम बोला--तालाब के किनारे वह जो चार-पाँच घर मल्लाहों के थे, उनमें तो लोहे के दो एक बरतनों के सिवा कुछ था ही नहीं। मैं समझता था देहातियों के पास अनाज को बखारें भरी होंगी; लेकिन यहाँ तो किसी घर में अनाज के मटके तक न थे।

शान्तिकुमार बोले--सभी किसान इतने गरीब नहीं होते। बड़े किसान के घर में बखार भी होती है; लेकिन ऐसे किसान गांव में दो-चार से ज्यादा नहीं होते।

अमरकान्त ने विरोध किया--मुझे तो इन गांवों में एक भी ऐसा किसान न मिला। और महाजन और अमले इन्हीं ग़रीबों को चूसते हैं? मैं कहता हूँ, उन लोगों को इन बेचारों पर दया भी नहीं आती!

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा--दया और धर्म की बहुत दिनों परीक्षा हुई और यह दोनों हलके पड़े! अब तो न्याय परीक्षा का युग है।

शान्तिकुमार की अवस्था कोई ३५ वर्ष की थी। गोरे-चिट्टे रूपवान आदमी थे। वेश-भूषा अंग्रेजी थी, और पहली नजर में अंग्रेज ही मालूम होते थे क्योंकि उनकी आंखें नीली थीं और बाल भी भूरे थे। आक्सफोर्ड से डाक्टर की उपाधि प्राप्त कर लाये थे । विवाह के कट्टर विरोधी, स्वतन्त्रता-प्रेम के कट्टर भक्त, बहुत ही प्रसन्न-मुख, सहृदय, सेवाशील व्यक्ति थे। मजाक का कोई अवसर पाकर न चूकते थे। छात्रों से मित्र भाव रखते थे। राजनैतिक आन्दोलनों में खूब भाग लेते; पर गुप्त रूप से। हाँ मैदान में न आते। सामाजिक क्षेत्र में खूब गरजते थे।

अमरकान्त ने करुण स्वर में कहा--मुझे तो उस आदमी की सूरत नहीं भूलती, जो छ: महीने से बीमार पड़ा था और एक पैसे की दवा न ली

कर्मभूमि
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