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मतई ने छाती ठोंककर कहा--बात कहकर निकल जाना पाजियों का काम है। सरकार आपका जो हुकुम होगा उससे बाहर नहीं जा सकता चाहे जान रहे या जाय। बिरादरी पर भगवान की दया से इतनी धाक है कि जो बात मैं कहूँगा, उसे कोई ढुलक नहीं सकता।

सुखदा ने निश्चय-भाव से कहा--अच्छी बात है, कल से तुम अपनी बिरादरी की हड़ताल करवा दो। और चौधरी लोग जायँ। मैं खुद घर-घर घूमूंगी, द्वार-द्वार जाऊँगी, एक-एक के पैर पड़ूँगी और हड़ताल करके छोडू़ँगी; और हड़ताल न हुई, तो मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँगी। मुझे तुम लोगों से बड़ी आशा थी, तुम्हारा बड़ा जोर था, आभमान था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया।

यह कहती हुई वह ठाकुरद्वारे से निकलकर पानी में भीगती हई चली गयी। मतई भी उसके पीछे-पीछे चला गया। और चौधरी लोग अपनी अपराधी सूरतें लिये बैठे रहे।

एक क्षण के बाद जगन्नाथ बोला--बहूजी ने सेर का कलेजा पाया है।

सुमेर ने पोपला मुंह चबलाकर कहा--लक्ष्मी की औतार है। लेकिन भाई, रोजगार तो नहीं छोड़ा जाता। हाकिमों की कौन चलाये, दस दिन, पन्द्रह दिन न सुनें, तो यहाँ तो मर मिटेंगे।

ईदू को दूर की सूझी--मर नहीं मिटेंगे पंचों, चौधरियों को जेहल में ढूंस दिया जायगा। हो किस फेर में। हाकिमों से लड़ना ठट्ठा नहीं।

जंगली ने हामी भरी--हम क्या खाकर रईसों से लड़ेंगे। बहूजी के पास धन है, इलम है, वह अफसरों से दो दो बातें कर सकती हैं। हर तरह का नुकसान सह सकती हैं। हमारी तो बधिया बैठ जायगी।

किन्तु सभी मन में लज्जित थे, जैसे मैदान से भागा सिपाही। उसे अपने प्राणों के बचाने का जितना आनन्द होता है, उससे कहीं ज्यादा भागने की लज्जा होती है। वह अपनी नीति का समर्थन मुंह से चाहे कर ले, हृदय से नहीं कर सकता।

जरा देर में पानी रुक गया और यह लोग भी यहाँ से चलें; लेकिन उनके उदास चेहरों में, उनकी मन्द चाल में, उनके झुके हुए सिरों में, उनके चिन्तामय मौन में उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे।

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कर्मभूमि