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सुखदा घर पहुँची, तो बहुत उदास थी। सार्वजनिक जीवन में हार का उसे यह पहला ही अनुभव था और उसका मन किसी चाबुक खाये हुये अल्हड़ बछेड़े की तरह सारा साज और वम और बन्धन तोड़-ताड़कर भाग जाने के लिए व्यग्र हो रहा था। ऐसे कायरों से क्या आशा की जा सकती है! जो लोग स्थायी लाभ के लिए थोड़े से कष्ट नहीं उठा सकते, उनके लिए संसार में अपमान और दुःख के सिवा और क्या है?

नैना मन में इस हार पर खुश थी। अपने घर में उसकी कुछ पूछ न थी, और अब तक अपमान ही अपमान मिला था, फिर भी उसका भविष्य उसी घर से सम्बद्ध हो गया था। अपनी आँखें दुखती है, तो फोड़ नहीं दी जातीं। सेठ धनीराम ने जो जमीन हजारों में खरीदी थी, थोड़े ही दिनों में उसके लाखों में बिकने की आशा थी। वह सुखदा से कुछ कह तो न सकती थी; पर यह आन्दोलन उसे बुरा मालूम होता था। सुखदा के प्रति अब उसकी वह भक्ति न रही थी। अपनी द्वेष-तुष्णा शान्त करने के ही लिए तो वह नगर में आग लगा रही है! इन तुच्छ भावनाओं से दबकर सुखदा उसकी आँखों में कुछ संकुचित हो गयी थी।

नैना ने आलोचक बनकर कहा--अगर यहाँ के आदमियों को संगठित कर लेना इतना आसान होता, तो आज यह दुर्दशा ही क्यों होती।

सुखदा आवेश में बोली--हड़ताल तो होगी, चाहे चौधरी लोग मानें या न मानें। चौधरी मोटे हो गये हैं और मोटे आदमी स्वार्थी हो जाते हैं।

नैना ने आपत्ति की--डरना मनुष्य के लिये स्वाभाविक है। जिसमें पुरुषार्थ है, ज्ञान है, बल है, वह बाधाओं को तुच्छ समझ सकता है। जिसके पास व्यंजनों से भरा हुआ थाल है, वह एक टुकड़ा कुत्ते के सामने फेंक सकता है। जिसके पास एक ही टुकड़ा हो, वह तो उसी से चिमटेगा।

सुखदा ने मानों इस कथन को सुना ही नहीं--मन्दिर वाले झगड़े में न जाने सभों में कैसे साहस आ गया था। मैं एक बार फिर वही कांड दिखा देना चाहती हूँ।

नैना ने काँपकर कहा--नहीं भाभी, इतना बड़ा भार सिर पर मत

कर्मभूमि
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