लो। समय आ जाने पर सब कुछ आप ही हो जाता है। देखो, हम लोगों के देखते-देखते बाल-विवाह, छूत-छात का रिवाज कितना कम हो गया। शिक्षा का प्रचार कितना बढ़ गया। समय आ जाने पर गरीबों के घर भी बन जायेंगे।'
'यह तो कायरों की नीति है। पुरुषार्थ वह है, जो समय को अपने अनुकूल बनाये।
'इसके लिए प्रचार करना चाहिए।'
'छ: महीनेवाली राह है।'
'लेकिन जोखिम तो नहीं है।'
'जनता को मुझ पर विश्वास नहीं है।'
एक क्षण बाद उसने फिर कहा--अभी मैंने ऐसी कौन-सी सेवा की है कि लोगों को मुझ पर विश्वास हो। दो-चार घण्टे गलियों का चक्कर लगा, लेना कोई सेवा नहीं है।
'मैं तो समझती है, इस समय हड़ताल कराने से जनता की जो थोड़ी बहुत सहानुभूति है, वह भी गायब हो जायगी।'
सुखदा ने अपनी जाँघ पर हाथ पटककर कहा--सहानुभूति से काम चलता, तो फिर रोना किस बात का था। लोग स्वेच्छा से नीति पर चलते तो कानून क्यों बनाने पड़ते। मैं इस घर में रहकर और अमीर का ठाट रखकर जनता के दिलों पर काबू नहीं पा सकती। मुझे त्याग करना पड़ेगा। इतने दिनों से सोचती ही रह गई।
दूसरे दिन शहर में अच्छी खासी हड़ताल थी। मेहतर तो एक भी काम करता न नज़र आता था। कहारों और इक्के गाड़ीवालों ने भी काम बन्द कर दिया था। साग-भाजी की दूकानें भी आधी से ज्यादा बन्द थीं। कितने ही घरों में दूध के लिए हाय-हाय मची हुई थी। पुलिस दुकानें खुलवा रहीं थी और मेहतरों को काम पर लाने की चेष्टा कर रही थी। उधर जिले के अधिकारी-मंडल में इस समस्या को हल करने का विचार हो रहा था। शहर के रईस और अमीर आदमी भी उसमें शामिल थे।
दोपहर का समय था। घटा उमड़ी चली आती थी, जैसे आकाश पर पीला लेप किया जा रहा हो। सड़कों और गलियों में जगह-जगह पानी