जमा था। उसी कीचड़ में जनता इधर-उधर दौड़ती फिरती थी। सुखदा के द्वार पर एक भीड़ लगी हुई थी कि सहसा शांतिकुमार घुटने तक कीचड़ लपेटे आकर बरामदे में खड़े हो गये। कल की बातों के बाद आज वहाँ आते उन्हें संकोच हो रहा था। नैना ने उन्हें देखा; पर अन्दर न बुलाया। सुखदा अपनी माता से बातें कर रही थी। शान्तिकुमार एक क्षण खड़े रहे, फिर हताश होकर चलने को तैयार हुए।
सुखदा ने उनकी रोनी सूरत देखी, फिर भी उन पर व्यंगप्रहार करने से न चूकी--किसी ने आपको यहाँ आते देख तो नहीं लिया डाक्टर साहब?
शांतिकुमार ने इस व्यंग्य की चोट को विनोद में रोका-खूब देखभालकर आया हूँ। कोई यहाँ देख भी लेगा, तो कह दूंगा, रुपये उधार लेने आया हूँ।
रेणुका ने डाक्टर साहब से देवर का नाता जोड़ लिया था। आज सुखदा ने कल का वृत्तान्त सुनाकर उसे डाक्टर साहब को आड़े हाथों लेने की सामग्री दे दी थी, हालाँकि अदृश्य रूप से डाक्टर साहब की नीति-भेद का कारण वह खुद थी। उसी ने ट्रस्ट का भार उनके सिर पर रखकर उन्हें सचिन्त कर दिया था।
उसने डाक्टर का हाथ पकड़कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा-तो चूड़ियाँ पहनकर बैठो ना, यह मूछे क्यों बढ़ा ली है?
शांतिकुमार ने हंसते हुए कहा-मैं तैयार हूँ, लेकिन मुझसे शादी करने के लिए तैयार रहिएगा। आपको मर्द बनना पड़ेगा।
रेणुका ताली बजाकर बोली--मैं तो बूढ़ी हुई; लेकिन तुम्हारा खसम ऐसा ढूँढूगी, जो तुम्हें सात परदों के अन्दर रखे और गालियों से बात करे। गहने मैं बनवा दूंगी। सिर में सेंदुर डालकर घूंघट निकाले रहना। पहले खसम खा लेगा तो उसकी जूठन मिलेगी, समझ गये, और उसे देवता का प्रसाद समझकर खाना पड़ेगा। जरा भी नाक-भौं सिकोड़ी, तो कुलच्छनी कहलाओगे। उसके पाँव दबाने पड़ेंगे, उसकी धोती छाँटनी पड़ेगी। वह बाहर से आयेगा, तो उसके पाँव धोने पड़ेंगे, और बच्चे भी जनने पड़ेंगे। बच्चे न हुए, तो वह दूसरा ब्याह कर लेगा, फिर घर में लौंडी बनकर रहना पड़ेगा।