शांतिकुमार पर लगातार इतनी चोटें पड़ी कि हँसी भूल गयी। मुंह जरा-सा निकल आया। मुर्दनी ऐसी छा गयी जैसे मुंह बँध गया। जबड़े फैलाने से भी न फैलते थे। रेणुका ने उसकी दो-चार बार पहले भी हँसी की थी; पर आज तो उसने उन्हें रुलाकर छोड़ा। परिहास में औरत अजेय होती है, खासकर जब वह बूढ़ी हो।
उन्होंने घड़ी देखकर कहा--एक बज रहा है आज तो हड़ताल अच्छी रही।
रेणुका ने फिर चुटकी ली--आप तो घर में लेटे थे, आपको क्या खबर ?
शांतिकुमार ने अपनी कारगुजारी जताई--उन आराम से लेटनेवालों में मैं नहीं हैं। हरेक आन्दोलन में ऐसे आदमियों की भी जरूरत होती है, जो गुप्त रूप से उसकी मदद करते रहें। मैंने अपनी नीति बदल दी है और मझे अनुभव हो रहा है कि मैं इस तरह कुछ कम सेवा नहीं कर सकता। आज नौजवान-सभा के दस-बारह युवकों को तैनात कर आया हूँ, नहीं इसकी चौथाई हड़ताल भी न होती।
रेणुका ने बेटी की पीठ पर एक थपकी देकर कहा--तब तु इन्हें क्यों बदनाम कर रही थी। बेचारे ने इतनी जान खपाई, फिर भी बदनाम हुए। मेरी समझ में भी यह नीति आ रही है। सब का आग में कूदना अच्छा नहीं।
शांति कुमार कल के कार्य-क्रम का निश्चय करके और सुखदा को अपनी ओर से आश्वस्त करके चले गये।
सन्ध्या हो गयी थी। बादल खुल गये थे और चाँद की सुनहरी जोत पृथ्वी के आँसुओं से भीगे हुए मुख पर जैसे मातृ-स्नेह की वर्षा कर रही थी। सुखदा सन्ध्या करने बैठी हुई थी। उस गहरे आत्म-चिन्तन में उसके मन की दुर्बलता किसी हठीले बालक की भाँति रोती हुई मालूम हुई। क्या मनीराम ने उसका अपमान न किया होता तो वह हड़ताल के लिए इतना जोर लगाती ?
उसने अभिमान से कहा--हाँ-हाँ जरूर लगाती। यह विचार बहुत पहले उसके मन में आया था। धनीराम को हानि होती है, तो हो, इस भय से वह अपने कर्तव्य का त्याग क्यों करे। जब वह अपना सर्वस्व इस उद्योग के लिए होम करने को तुली हुई है, तो दूसरों के हानि-लाभ की उसे क्या चिन्ता हो सकती है।