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इस तरह मन को समझाकर उसने सन्ध्या समाप्त की और नीचे उतरी थी कि लाल समरकान्त आकर खड़े हो गये। उनके मुख पर विषाद की रेखा झलक रही थी और होंठ इस तरह फड़क रहे थे, मानों मन का आवेश बाहर निकलने के लिए विकल हो रहा हो।

सुखदा ने पूछा--आप कुछ घबराये हुए हैं दादाजी, क्या बात है?

समरकान्त की सारी देह जैसे काँप उठी। आँसुओं के वेग को बल-पूर्वक रोकने की चेष्टा करके बोले--एक पुलिस कर्मचारी अभी दुकान पर ऐसी सुचना दे गया है, कि क्या कहूँ. . . . . .

यह कहते-कहते उनका कंठ स्वर जैसे गहरे जल में डुबकियां खाने लगा।

सुखदा ने आशंकित होकर पूछा--तो कहिए न, क्या कह गया है। हरिद्वार में तो सब कुशल है?

समरकान्त ने उसकी आशंकाओं को दूसरी ओर बहकते देख जल्दी से कहा--नहीं-नहीं उधर की कोई बात नहीं है। तुम्हारे विषय में था। तुम्हारी गिरफ्तारी का वारण्ट निकल गया है।

सुखदा ने हँसकर कहा--अच्छा! मेरी गिरफ्तारी का वारण्ट है! तो उसके लिए आप इतना क्यों घबरा रहे हैं? मगर आखिर मेरा अपराध क्या है?

समरकान्त ने मन को सँभालकर कहा--यही हड़ताल है। आज अफसरों में सलाह हुई है और वहाँ यही निश्चय हुआ कि तुम्हें और चौधरियों को पकड़ लिया जाय। इनके पास दमन ही एक दवा है। असंतोष के कारणों को दूर न करेंगे, बस पकड़-धकड़ से काम लेंगे, जैसे कोई माता भूख से रोते बालक को पीटकर चुप कराना चाहें।

सुखदा शांत भाव से बोली--जिस समाज का आधार ही अन्याय पर हो, उसकी सरकार के पास दमन के सिवा और क्या दवा हो सकती है? लेकिन इससे कोई यह न समझे कि यह आन्दोलन दब जायगा। उसी तरह जैसे कोई गेंद टक्कर खाकर और जोर से उछलता है, जितने ही जोर की टक्कर होगी, उतने ही जोर की प्रतिक्रिया भी होगी।

एक क्षण के बाद उसने उत्तेजित होकर कहा--मुझे गिरफ्तार कर लें। उन लाखों गरीबों को कहाँ ले जायेंगे, जिनकी आहे आसमान तक पहुँच रही

कर्मभूमि
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