जयजयकार-ध्वनि उठ रही थी स्त्री और पुरुप देवीजी के दर्शनों को भागे चले आते थे।
भीतर सुखदा और नैना में समर छिड़ा हूआ था।
सुखदा ने सामने से थाली हटाकर कहा---मैंने कह दिया, मैं कुछ न खाऊँगी।
नैना ने उसका हाथ पकड़ कर कहा---दो-चार कौर ही खा लो भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। फिर न जाने यह दिन कब आये।
उसकी आंखें सजल हो गयीं।
सुखदा निष्ठुरता से बोली---तुम मुझे व्यर्थ में दिक कर रही हो बीबी, मुझे अभी बहुत-सी तैयारियां करनी हैं और उधर डिप्टी जल्दी मचा रहा है। देखती नहीं हो, द्वार पर डोली खड़ी है। इस वक्त खाने की किसे सूझती है।
नैना प्रेम-विह्वल कण्ठ से बोली---तुम अपना काम करती रहो, मैं तुम्हें कौर बनाकर खिलाती जाऊँगी।
जैसे माता खेलन्दे बच्चे के पीछे दौड़ दौड़कर उसे खिलाती है, उसी तरह नैना भाभी को खिलाने लगी। सुखदा कभी इस आलमारी के पास जाती, कभी उस सन्दूक के पास। किसी सन्दूक से सिन्दूर की डिबिया निकालती, किसी से साड़ियाँ। नैना एक कौर खिलाकर फिर थाल के पास जाती और दूसरा कौर लेकर दौड़ती।
सुखदा ने पाँच-छ: कौर खाकर कहा---बस अब पानी पिला दो।
नैना ने उसके मुँह के पास कौर ले जा कर कहा---बस, यही और ले लो, मेरी अच्छी भाभी!
सुखदा ने मुँह खोल दिया और ग्रास के साथ आँसू भी पी गयी।
'बस एक और!'
'अब एक कौर भी नहीं।'
'मेरी खातिर से।'
सुखदा ने ग्रास ले लिया।
'पानी भी दोगी या खिलाती ही जाओगी?'
'बस, एक ग्रास भैया के नाम का और ले लो।'
'ना। किसी तरह नहीं।'