थी। इस दशा में जमीदार ने लगान की डिग्री करा ली और जो कुछ घर में था, नीलाम करा लिया। बैल तक बिकवा लिये। ऐसे अन्यायी संसार की नियन्ता कोई चेतन शक्ति है, मुझे तो इसमें सन्देह हो रहा है। तुमने देखा नहीं सलीम, गरीब के बदन पर चिथड़े तक न थे। उसकी वृद्धा माता कितना फूट-फूटकर रोती थी।
सलीम की आंखों में आँसू थे। बोला--तुमने रुपये दिये, तो बुढ़िया कैसी तुम्हारे पैरों पर गिर पड़ी। मैं तो अलग मुंह फेर कर रो रहा था।
मण्डली यों ही बात-चीत करती चली जा रही थी। अब पक्की सड़क मिल गयी थी। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने मार्ग को अँधेरा कर दिया था। सड़क के दाहने बायें, ऊख, अरहर आदि के खेत खड़े थे। थोड़ी-थोड़ी दूर पर दो, एक मजूर या राहगीर मिल जाते थे।
सहसा एक वृक्ष के नीचे दस-बारह स्त्री-पुरुष सशंकित भाव से दबके हुए दिखाई दिये। सब-के-सब सामनेवाले अरहर की खेत की ओर ताक रहे थे और आपस में कनफुसकियाँ कर रहे थे। अरहर के खेत की मेंड़ पर दो गोरे सैनिक, हाथ में बेंत लिये, अकड़े खड़े थे। छात्र-मण्डली को कुतूहल हुआ। सलीम ने पूछा--क्या माजरा है, तुम लोग क्यों जमा हो?
अचानक अरहर के खेत की ओर से किसी औरत का चीत्कार सुनाई पड़ा। छात्रवर्ग अपने डण्डे सँभाल कर खेत की तरफ लपका। परिस्थिति उनकी समझ में आ गयी थी।
एक गोरे सैनिक ने आँखें निकाल कर छड़ी दिखाते हुए कहा--भाग जाओ, नहीं हम ठोकर मारेगा!
इतना उसके मुँह से निकलना था, कि डा॰ शान्तिकुमार ने लपककर उसके मुँह पर धूँसा मारा। सैनिक के मुँह पर घूँसा पड़ा तो तिलमिला उठा, पर था घूँसेबाजी में मँजा हुआ। घूँसे का जबाव जो दिया तो डाक्टर साहब गिर पड़े। उसी वक्त सलीम ने अपनी हाकी स्टिक उस गोरे के सिर पर जमाई। वह चौंधिया गया, ज़मीन पर गिर पड़ा और जैसे मूर्छित हो गया। दूसरे सैनिक को अमर और एक दूसरे छात्र ने पीटना शुरू कर दिया था; पर वह इन दोनों युवकों पर भारी था। सलीम इधर मे फुरसत पाकर उस पर लपका। एक के मुकाबले में तीन हो गये। सलीम की स्टिक ने इस सैनिक