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नैना की आँखों में आंसू थे, प्रत्यक्ष। सुखदा की आँखों में भी आँसू थे; मगर छिपे हुए। नैना शोक से विह्वल थी, सुखदा उसे मनोबल से दबाये हुए थी। वह एक बार निष्ठुर बनकर चलते-चलते नैना के मोह-बन्धन को तोड़ देना चाहती थी, पैने शब्दों से हृदय के चारों ओर खाई खोद देना चाहती थी, मोह और शोक और वियोग-व्यथा के आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए। पर नैना की वह छलछलाती हुई आंखें, वह काँपते हुए ओठ, यह विनय-दीन मुखश्री, उसे नि:शस्त्र किये देती थी।

नैना ने जल्द-जल्द पान के बीड़े लगाये और भाभी को खिलाने लगी, तो उसके दब हुए आँसू फव्वारे की तरह उबल पड़े। मुंह ढाँप कर रोने लगी। सिसकियाँ और गहरी होकर कंठ तक जा पहुंची।

सुखदा ने उसे गले से लगाकर सजल शब्दों में कहा--क्यों रोती हो बीबी। बीच-बीच में मुलाकात तो होती ही रहेगी। जेल में मुझसे मिलने आना, तो खूब अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर लाना। दो-चार महीने में तो मैं फिर आ जाऊँगी।

नैना ने जैसे डूबती हुई नाव पर से कहा--मैं ऐसी अभागिन हूँ कि आप तो डूबी ही थी, तुम्हें भी ले डूबी।

ये शब्द फोड़े की तरह उसी समय से उसके हृदय में टीस रहे थे, जबसे उसने सुखदा की गिरफ्तारी की खबर सुनी थी, और यह टीस उसकी मोह-वेदना को और भी दुर्दान्त बना रही थी।

सुखदा ने आश्चर्य से उसके मुंह की ओर देखकर कहा--यह तुम क्या कह रही हो बीबी, क्या तुमने पुलिस बुलाई है?

नैना ने ग्लानि से भरे कष्ट से कहा--वह पत्थर की हवेलीवालों का कुचक्र है। (सेठ धनीराम शहर में इसी नाम से प्रसिद्ध थे) मैं किसी को गालियाँ नहीं देती, पर उनका किया उनके आगे आयेगा। जिस आदमी के लिये एक मुँह से भी आशीर्वाद न निकलता हो, उसका जीना वृथा है।

सुखदा ने उदास होकर कहा--उनका इसमें क्या दोष है बीबी? वह सब हमारे समाज का, हम सबों का दोष है। अच्छा आओ अब विदा हो जाँय। वादा करो, मेरे जाने पर रोओगी नहीं।

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कर्मभूमि