अमर ने देखा, कमरे में गद्देदार कोच हैं, पीतल के गमले हैं, जमीन पर कालीन है, मध्य में संगमरमर की गोल मेज है।
अमर ने दरवाजे पर जूते उतार दिये और बोला—केवाड़ बन्द कर दूं, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिन्दा होना पड़े। तुम साहब ठहरे।
सलीम पते की बात सुनकर झेंप गया। बोला—कुछ-न-कुछ खयाल तो होता ही है भई, हालांकि मैं फैशन का गुलाम नहीं हूँ। मैं भी सादी जिन्दगी बसर करना चाहता था; लेकिन अब्बाजान की फरमाइश कैसे टालता। प्रिंसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकते, लेकिन रिजल्ट निकला तो सब दंग रह गये। तुम्हारे ही खयाल से मैंने यह जिला पसन्द किया। कल तुम्हें कलक्टर से मिलाऊँगा। अभी मि० गजनवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौकीन आदमी है। मगर दिल का साफ़। पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी हो गयी। चालीस के करीब होंगे, मगर कम्पेबाजी नहीं छोड़ी।
अमर के विचार में अफसरों को सच्चरित्र होना चाहिये था। सलीम सच्चरित्रता का कायल न था। दोनों मित्रों में बहस हो गयी।
सलीम ने कहा—खुश्क आदमी कभी अच्छा अफ़सर नहीं हो सकता।
अमर बोला—सच्चरित्र होने के लिए खुश्क होना जरूरी नहीं।
'मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा खुश्क ही देखा। अफसरों के लिए महज कानून की पाबन्दी काफ़ो नहीं। मेरे खयाल में तो थोड़ी-सी कमजोरी इन्सान का जेवर है। मैं जिन्दगी में तुमसे ज्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को खुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूँ। तुम किसी जिले के अफ़सर बना दिये जाओ तो एक दिन न रह सको। किसी को खुश न रख सकोगे।'
अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा; क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।
भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकाल कर अमर को ओढ़ा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसके पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। मांस तो उसने न खाया; लेकिन और सब चीजें मजे से खायीं।