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सलीम ने पूछा—जो चीज खाने की थी, वह तो आपने निकालकर रख दी।

अमर ने अपराधी भाव से कहा—मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन भीतर से इच्छा नहीं होती। और कहो, वहाँ की क्या खबरें हैं? कहीं शादी–वादी ठीक हुई? इतनी कसर बाकी है, उसे भी पूरी कर लो।

सलीम ने चुटकी ली—मेरी शादी की फ़िक्र छोड़ो, पहले यह बताओ कि सकीना से तुम्हारी शादी कब हो रही है। वह बेचारे तुम्हारे इन्तजार में बैठी हुई है।

अमर का चेहरा फीका पड़ गया। यह ऐसा प्रश्न था, जिसका उत्तर देना उसके लिये संसार में सबसे मुश्किल काम था। मन की जिस दशा में वह सकीना की ओर लपका था, वह दशा अब न रही थी। तब सुखदा उसके जीवन में एक बाधा के रूप में खड़ी थी। दोनों की मनोवृत्तियों में कोई मेल न था: दोनों जीवन को भिन्न-भिन्न कोण से देखते थे। एक में भी यह सामर्थ्य न थी कि बह दूसरे को हमखयाल बना लेता; लेकिन अब वह हालत न थी। किसी देवी विधान ने उनके सामाजिक बन्धन को और कसकर उनकी आत्माओं को मिला दिया था। अमर को पता नहीं, सुखदा ने उसे क्षमा प्रदान की या नहीं; लेकिन वह अब सुखदा का उपासक था। उसे आश्चर्य होता था कि विलासिनी सुखदा ऐसी तपस्विनी क्योंकर हो गयी और यह आश्चर्य उसके अनुराग को दिन-दिन प्रबल करता जाता था। उसे अब अपने उस असन्तोष का कारण अपनी ही अयोग्यता में छिपा हुआ मालूम होता था। अगर वह अब सुखदा को कोई पत्र न लिख सका तो इसके दो कारण थे। एक तो लज्जा और दूसरी अपनी पराजय की कल्पना। शासन का वह पुरुषोचित भाव मानो उसका परिहास कर रहा था। सुखदा स्वच्छन्द रूप से अपने लिए एक नया मार्ग निकाल सकती है, उसकी उस लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है, यह विचार उसके अनुराग की गर्दन को जैसे दबा देता था। वह अधिक से अधिक उसका अनुगामी हो सकता है, वह उससे पहले समर में कूदी जा रही है, यह भाव उसके आत्मगौरव को चोट पहुँचाता था।

उसने सिर झुकाकर कहा—मुझे अब तजर्बा हो रहा है, कि मैं औरतों

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कर्मभूमि