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हुई सूरत में। नाम की परवाह है और कुछ नहीं। मगर फिर उसने अपने को धिक्कारा। तुम किसी के अन्तःकरण की बात क्या जानते हो। आज हजारों आदमी राष्ट्र की सेवा में लगे हुए हैं कौन कह सकता है, कौन स्वार्थी है,कौन सच्चा सेवक?

न जाने कब उसे भी नींद आ गयी।


अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी जीवन-यात्रा में वह अब एक नये घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को एक ओर चाबुक लगाने की जरूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियाँ खड़ी किये सरपट भागता चला जाता है। स्वामी आत्मानन्द, काशी, प्रयाग, सभी से उसकी तकरार हो जाती। इन लोगों के पास वही पुराने घोड़े हैं। दौड़ में पिछड़ जाते हैं। अमर उनकी मन्द गति पर बिगड़ता है—इस तरह तो काम नहीं चलने का स्वामीजी। आप काम करते हैं कि मजाक करते हैं। इससे तो कहीं अच्छा था कि आप सेवाश्रम में बने रहते!

आत्मानन्द ने अपने विशाल वक्ष को तानकर कहा—बाबा, मेरे से अब और नहीं दौड़ा जाता। जब लोग स्वास्थ्य के नियमों पर ध्यान न देंगे, तो आप बीमार होंगे, आप मरेंगे। मैं नियम बतला सकता हूँ, पालन करना तो उनके हो अधीन है।

अमरकान्त ने सोचा—यह आदमी जितना मोटा है, उतनी ही मोटी इसकी अक्ल भी है। खाने को डेढ़ सेर चाहिए, काम करते ज्वर आता है। इन्हें संन्यास लेने से न जाने क्या लाभ हुआ।

उसने आँखों में तिरस्कार भरकर कहा—आपका काम केवल नियम बताना नहीं है, उनसे नियमों का पालन कराना भी है। उनमें ऐसी शक्ति डालिए कि वे नियमों का पालन किये बिना रह ही न सकें। उनका स्वभाव ही ऐसा हो जाय। मैं आज पिचौरा से निकला; गाँव में जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई दिये। आप कल उसी गाँव से हो आये हैं क्यों कूड़ा साफ
                                 

कर्मभूमि
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