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अमरकान्त ने उसे हिम्मत हारते देखकर सहास मुख से कहा--कितना बड़ा पेट है! तो उसे छोटा करना पड़ेगा।

काशी और प्रयाग ने देखा कि इस वक्त सबके ऊपर फटकार पड़ रही है, तो वहाँ से खिसक गये।

पाठशाले का समय आ गया था। अमरकान्त अपनी कोठरी में किताब लेने गया, तो देखा, मुन्नी दूध लिये खड़ी है। बोला--मैंने तो कह दिया था, मैं दूध न पिऊँगा, फिर क्यों लायीं?

आज कई दिनों से मुन्नी अमर के व्यवहार में एक प्रकार की शुष्कता अनुभव कर रही थी। उसे देखकर अब उनके मुख पर उल्लास की झलक नहीं आती। उससे अब बिना विशेष प्रयोजन के बोलते भी कम हैं। उसे ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे भागते हैं। इसका कारण वह कुछ नहीं समझ सकती। यह काँटा उसके मन में कई दिन से खटक रहा है। आज वह इस काँटे को निकाल डालेगी।

उसने अविचलित भाव से कहा--क्यों नहीं पियोगे; सुनूँ?

अमर पुस्तक का एक बण्डल उठाता हुआ बोला--अपनी इच्छा है, नहीं पीता—तुम्हें मैं कष्ट नहीं देना चाहता।

मुन्नी ने तिरछी आँखों से देखा--यह तुम्हें कब से मालूम हुआ कि तुम्हारे लिए दूध लाने में मुझे बहुत कष्ट होता है। और अगर किसी को कष्ट उठाने ही में सुख मिलता हो तो?

अमर ने हारकर कहा--अच्छा भाई, झगड़ा न करो, लाओ पी लूँ!

एक ही साँस में सारा दूध कड़वी दवा की तरह पीकर अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने द्वार छोड़कर कहा--बिना अपराध के तो किसी को सजा नहीं दी जाती।

अमर द्वार पर ठिठककर बोला--तुम तो जाने क्या बक रही हो। मुझे देर हो रही है।

मुन्नी ने विरक्त भाव धारण किया--तो मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ, जाते क्यों नहीं।

अमर कोठरी से बाहर पाँव न निकाल सका।

मुन्नी ने फिर कहा--क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि मेरा तुम्हारे

कर्मभूमी
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