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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२९४

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ऊपर कोई अधिकार नहीं है? तुम आज चाहो, तो कह सकते हो, खबरदार, मेरे पास मत आना। और मुँह से चाहे न कहते हो; पर व्यवहार से रोज ही कह रहे हो। आज कितने दिनों से देख रही हूँ; लेकिन बेहयाई करके आती हूँ, बोलती हूँ, खुशामद करती हूँ। अगर इस तरह आँखें फेरनी थीं, तो पहले ही से उस तरह क्यों न रहे। लेकिन मैं क्या बकने लगी। तुम्हें देर हो रही है,जाओ।

अमरकान्त ने जैसे रस्सी तुड़ाने का जोर लगाकर कहा—तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आ रही है मुन्नी! मैं तो जैसे पहले रहता था, वैसे ही अब भी रहता हूँ। हाँ, इधर काम अधिक होने से ज्यादा बातचीत का अवसर नहीं मिलता।

मुन्नी ने आँखें नीची करके गूढ़ भाव से कहा—तुम्हारे मन की बात में समझ रही हूँ; लेकिन वह बात नहीं है। तुम्हें भरम हो रहा है।

अमरकान्त ने आश्चर्य से कहा—तुम तो पहेलियों में बातें करने लगीं।

मुन्नी ने उसी भाव से जवाब दिया—आदमी का मन फिर जाता है तो सीधी बातें भी पहेली-सी लगती हैं।

फिर वह दूध का खाली कटोरा उठाकर जल्दी से चली गयी।

अमरकान्त का हृदय मसोसने लगा। मुन्नी जैसे सम्मोहन-शक्ति से उसे अपनी ओर खींचने लगी। 'तुम्हारे मन की बात समझ रही हूँ; लेकिन तुम्हें भ्रम हो रहा है।' यह वाक्य किसी गहरे खड्ड की भाँति उसके हृदय को भयभीत कर रहा था। उसमें उतरते दिल काँपता' था, पर रास्ता उसी खड्ड में से जाता था।

वह न जाने कितनी देर अचेत-सा खड़ा रहा। सहसा आत्मानन्द ने पुकारा—क्या आज शाला बन्द रहेगी?


इस इलाके के जमींदार एक महन्तजी थे। कारकुन और मुख्तार उन्हीं के चेले-चापड़ थे। इसलिए लगान बराबर वसूल होता जाता था। ठाकुरद्वारे में कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता था। कभी ठाकुरजी का जन्म

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कर्मभूमि