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कुछ इसी इलाके की न थी। सारे प्रान्त, सारे देश, यहाँ तक कि सारे संसार में यही मंदी थी। चार सेर का गुड़ कोई दस सेर में भी नहीं पूछता। आठ सेर का गेहूँ डेढ़ रुपये मन में भी मंहगा है। ३०) मन का कपास १०) रुपये में जाता है, १६) मन का सन ४) में। किसानों ने एक-एक दाना बेच डाला, भूसे का एक तिनका भी न रखा; लेकिन यह सब-कुछ करने पर भी चौथाई लगान से ज्यादा न अदा कर सके। और ठाकद्वारे में वही उत्सव थे, वही जलविहार थे। नतीजा यह हुआ कि हलके में हाहाकार मच गया। इधर कुछ दिनों से स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त के उद्योग से इलाके में विद्या का कुछ प्रचार हो रहा था और कई गाँवों में लोगों ने दस्तूरी देना बन्द कर दिया था। महन्तजी के प्यादे और कारकुन पहले ही से जले बैठे थे। यों तो दाल न गलती थी। बक़ाया लगान ने उन्हें अपने दिल का गुबार निकालने का मौका दे दिया।

एक दिन गंगा-तट पर इस समस्या पर विचार करने के लिए एक पंचायत हुई। सारे इलाके के स्त्री-पुरुष जमा हए, मानो किसी पर्व का स्नान करने आये हों। स्वामी आत्मानन्द सभापति चुने गये।

पहले भोला चौधरी खड़े हुए। वह पहले किसी अफ़सर के कोचवान थे। अब नये साल से फिर खेती करने लगे थे। लम्बी नाक, काला रंग, बड़ी-बड़ी मूछे और बड़ी-सी पगड़ी। मुंह पगड़ी में छिप गया था। बोले—पंचो, हमारे ऊपर जो लगान बँधा हुआ है, वह तेजी के समय का है। इस मंदी में वह लगान देना हमारे काबू से बाहर है। अबकी अगर बैल-बधिया बेचकर दे भी दें, तो आगे क्या करेंगे। बस, हमें इस बात का तसफ़िया करना है। मेरी गुजारस तो यही है कि हम सब मिलकर महन्त महाराज के पास चलें और उनसे अरज-मारूज करें। अगर वह न सुनें, तो हाकिम जिला के पास चलना चाहिए। मैं औरों की नहीं कहता। मैं गंगा माता की कसम खाके कहता हूँ कि मेरे घर में छटाँक भर भी अन्न नहीं है, और जब मेरा यह हाल है, तो और सभों का भी यही हाल होगा। उधर महन्तजी के यहाँ वही बहार है। अभी परसों एक हजार साधुओं को आम की पगंत दी गई है। बनारस और लखनऊ से कई डिब्बे आमों के आये हैं। आज सुनते हैं फिर मलाई की पंगत है। हम भूखों मरते हैं, वहाँ मलाई उड़ती

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कर्मभूमि