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है। उस पर हमारा रक्त चूसा जा रहा है। बस, यही मुझे पंचों से कहना है।

गूदड़ ने धँसी हुई आँखें फाड़कर कहा--महन्तजी हमारे मालिक है, आनन्ददाता हैं, महात्मा हैं। हमारा दुख सुनकर ज़रूर उन्हें हमारे ऊपर दया आयेगी; इसलिए हमें भोला चौधरी की सलाह मंजूर करनी चाहिए। अमर भैया हमारी ओर से बातचीत करेंगे। हम और कुछ नहीं चाहते। बस, हमें और हमारे बाल-बच्चों को आध-आध सेर रोजीना के हिसाब से दिया जाय। उपज जो कुछ हो, वह सब महन्तजी ले जायें। हम घी-दूध नहीं माँगते, दूध-मलाई नहीं माँगते। खाली आध सेर मोटा अनाज माँगते हैं। इतना भी न मिलेगा, तो हम खेती न करेंगे। मजूरी और बीज किसके घर से लायँगे। हम खेत छोड़ देंगे, इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है।

सलोनी ने हाथ चमकाकर कहा--खेत क्यों छोड़ें? बाप-दादों की निसानी है। उसे नहीं छोड़ सकते। खेत पर परान दे दूंगी। एक था, तब दो हुए, तब तक चार हुए, अब क्या धरती सोना उगलेगी?

अलगू कोरी बिज्जू सी आँखें निकाल कर बोला--भैया, मैं तो बात बेलाग कहता हूँ, महन्त के पास चलने से कुछ न होगा। राजा ठाकुर हैं! कहीं क्रोध आ गया, तो पिटवाने लगेंगे। हाकिम के पास चलना चाहिए। गोरों में फिर भी दया है।

आत्मानन्द ने सभों का विरोध किया--मैं कहता हूँ, किसी के पास जाने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी थाली की रोटी तुमसे कहे कि मुझे न खाओ, तो तुम मानोगे?

चारों तरफ से आवाजें आई--कभी नहीं मान सकते।

'तो तुम जिनकी थाली की रोटियाँ हो, वह कैसे मान सकता है?'

बहुत-सी आवाज़ों ने समर्थन किया--कभी नहीं मान सकते।

'महन्त को उत्सव मनाने को रुपये चाहिये। हाकिमों को बड़ी-बड़ी तलब चाहिए। उनकी तलब में कमी नहीं हो सकती। वे अपनी शान नहीं छोड़ सकते। तुम मरो या जियो, उनकी बला से। वह तुम्हें क्यों छोड़ने लगे।

बहुत सी आवाजों ने हामी भरी--कभी नहीं छोड़ सकते।

कर्मभूमि
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