रहे और तुमसे कुछ न हो सका! तुममें इतनी गैरत भी नहीं! अपनी बहू-बेटियों की आबरू की हिफ़ाज़त भी नहीं कर सकते? समझते होगे हमारी बहू-बेटी थोड़े ही है। इस देश में जितनी बेटियाँ है, सब तुम्हारी बेटियाँ हैं; जितनी बहुएँ हैं, सब तुम्हारी बहुएँ हैं, जितनी माताएँ हैं, सब तुम्हारी माताएँ हैं। तुम्हारी आँखों के सामने यह अनर्थ हुआ और तुम कायरों की तरह खड़े ताकते रहे। क्यों सब-के-सब जाकर मर नहीं गये!
सहसा उसे ख्याल आ गया, कि मैं आवेश में आकर इन गरीबों को फटकार बताने में अनधिकार-चेष्टा कर रहा हूँ। वह चुप हो गया और कुछ लज्जित भी हुआ।
समीप के एक गांव से बैलगाड़ी मँगाई गयी। शान्तिकुमार को लोगों ने उठाकर उस पर लेटा दिया और गाड़ी चलने को हुई कि डाक्टर साहब ने चौंककर पूछा--और उन तीनों आदमियों को क्या यहीं छोड़ जाओगे।
सलीम ने मस्तक सिकोड़ कर कहा--हम उनको लादकर ले जाने के जिम्मेदार नहीं हैं। मेरा तो जी चाहता है, उन्हें खोदकर दफन कर दूँ।
आखिर डाक्टर के बहुत समझाने के बाद सलीम राजी हुआ। तीनों गोरे भी गाड़ी पर लादे गये और गाड़ी चली। सब-के-सब मजूर अपराधियों की भाँति सिर झुकाये कुछ दूर तक गाड़ी के पीछे-पीछे चले। डाक्टर ने उनको बहुत धन्यवाद देकर विदा किया। ९ बजते-बजते समीप का रेलवे स्टेशन मिला। इन लोगों ने गोरों को तो वहीं पुलिस के चार्ज में छोड़ दिया और आप डाक्टर साहब के साथ गाड़ी पर बैठकर घर चले।
सलीम और डाक्टर साहब तो जरा देर में हँसने-बोलने लगे। इस संग्राम की चर्चा करते उनकी जबान न थकती थी। स्टेशन-मास्टर से कहा, गाडी में मुसाफिरों से कहा, रास्ते में जो मिलता उससे कहा। सलीम तो अपने साहस और शौर्य की खूब डींगें मारता था, मानो कोई किला जीत आया है और जनता को चाहिए कि उसे मुकुट पहनाये, उसकी गाड़ी खींचे, उसका जुलूस निकाले, किन्तु अमरकान्त चुपचाप डाक्टर साहब के पास बैठा हुआ था। आज के अनुभव ने उसके हृदय पर ऐसी चोट लगाई थी, जो कभी न भरेगी। वह मन-ही-मन इस घटना की व्याख्या कर रहा था। इन टके के सैनिकों की इतनी हिम्मत क्यों हुई? यह गोरे सिपाही इंगलैण्ड की निम्नतम