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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३०२

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तो कोई क्यों जाय तुम्हारे पास। तुम्हें बड़े-बड़े काम करने पड़ते हैं, तो औरों को भी तो अपने छोटे-छोटे काम करने ही पड़ते हैं।

अमर पत्नीव्रत की धुन में मुन्नी से कुछ खिंचा रहने लगा था। पहले वह चट्टान पर था, सुखदा उसे नीचे से खींच रही थी। अब सुखदा टीले के शिखर पर पहुँच गयी और उसके पास पहुँचने के लिये उसे आत्मबल और मनोयोग की ज़रूरत थी। उसका जीवन आदर्श होना चाहिये; किन्तु प्रयास करने पर भी वह सरलता और श्रद्धा की इस मूर्ति को दिल से न निकाल सकता था। उसे ज्ञात हो रहा था कि आत्मोन्नति के प्रयास में उसका जीवन शुष्क निरीह हो गया है। उसने मन में सोचा, मैंने तो समझा था, हम दोनों एक-दूसरे के इतने समीप आ गये हैं कि अब बीच में किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रही। मैं चाहे यहाँ रहूँ, चाहे काले कोसों चला जाऊँ; लेकिन तुमने मेरे हृदय में जो दीपक जला दिया, उसकी ज्योति ज़रा भी मन्द न पड़ेगी।

उसने मीठे तिरस्कार से कहा--मैं यह मानता हूँ मुन्नी, इधर काम अधिक रहने से तुमसे कुछ अलग रहा; लेकिन मुझे आशा थी कि अगर चिन्ताओं से झुंझलाकर मैं तुम्हें दो-चार कड़वे शब्द भी सुना दूँ, तो तुम मुझे क्षमा करोगी। अब मालूम हुआ कि वह मेरी भूल थी।

मुन्नी ने उसे कातर नेत्रों से देखकर कहा--हाँ लाला, वह तुम्हारी भूल थी। दरिद्र को सिंहासन पर भी बैठा दो तब भी उसे अपने राजा होने का विश्वास न आयेगा। वह उसे सपना ही समझेगा। मेरे लिये भी यही सपना जीवन का आधार है। मैं कभी जागना नहीं चाहती। नित्य यही सपना देखती रहना चाहती हूँ। तुम मुझे थपकियाँ देते जाओ, बस, मैं इतना ही चाहती हूँ। क्या इतना भी नहीं कर सकते? क्या हुआ, आज स्वामीजी से तुम्हारा झगड़ा क्यों हो गया?

सलोनी अभी तो आत्मानन्द की तारीफ़ कर रही थी। अब अमर की मुँह-देखी कहने लगी--

भैया ने तो लोगों को समझाया था कि महन्त के पास चलो। इसी पर लोग बिगड़ गये। पूछो, और तुम कर ही क्या सकते हो? महन्तजी पिटवाने लगें, तो भागते राह न मिले।

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कर्मभूमि