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मुन्नी ने इसका समर्थन किया--महन्तजी धर्मात्मा आदमी हैं। भला लोग भगवान् के मन्दिर को घेरते, तो कितना अपजस होता। संसार भगवान् का भजन करता है, हम चले उनकी पूजा रोकने। न-जाने स्वामी को यह सूझी क्या और लोग उनकी बात मान गये। कैसा अन्धेर है?

अमर ने चित्त में शान्ति का अनुभव किया। स्वामीजी से तो ज़्यादा समझदार ये अपढ़ स्त्रियाँ हैं। और आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं। ऐसे ही मूर्ख आपको भक्त मिल गये!

उन्होंने प्रसन्न होकर कहा--उस नवक़ारख़ाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता था काकी? लोग मन्दिर को घेरने जाते, तो फौजदारी हो जाती। ज़रा-ज़रा सी बात में तो आजकल गोलियाँ चलती हैं।

सलोनी ने भयभीत होकर कहा--तुमने बहुत अच्छा किया भैया, जो उनके साथ न हुए। नहीं खून खच्चर हो जाता।

मुन्नी आद्र होकर बोली--मैं तो तुम्हें उनके साथ कभी न जाने देती लाला! हाकिम संसार पर राज करता है, तो क्या रैयत का दुःख-दर्द न सुनेगा? स्वामीजी आयेंगे, तो पूछूँगी।

आग की तरह जलता हुआ घाव सहानुभूति और सहृदयता से भरे हुए शब्दों से शीतल होता जान पड़ा। अब अमर कल अवश्य महन्तजी की सेवा में जायगा। उसके मन में अब कोई शंका, कोई दुविधा नहीं है।


अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुँचा। सन्ध्या का समय था। महन्तजी एक सोने की कुरसी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। सभी धुले हुए संगमरमर के फर्श पर बैठी हुई थीं। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महन्तजी पूरे छ: फीट के विशालकाय सौम्य पुरुष थे। अवस्था कोई पैंतीस वर्ष की थी। गोरा रंग, दुहरी देह, तेजस्वी मूर्ति, वस्त्र काषाय तो थे, किन्तु रेशमी। वह पाँव लटकाये बैठे हुए थे। भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आँखों से लगाते थे, पूजा

कर्मभूमि
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