कहीं पटवे गहने गूंथ रहे थे। एक कमरे में दस-बारह मुस्टण्डे जवान बैठे चन्दन रगड़ रहे थे। सबों के मुँह पर ढाटे बँधे हुए थे। एक पूरा कमरा इत्र और तेल और अगर की बत्तियों से भरा हुआ था। ठाकुरजी के नाम पर धन का कितना अपव्यय हो रहा है, यही सोचता हुआ अमर वहाँ से फिर बीचवाले प्रांगण में आया और सदर द्वार से बाहर निकला।
गूदड़ ने पूछा--बड़ी देर लगाई। कुछ बात-चीत हुई?
अमर ने हँसकर कहा--अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी। यह कहकर उसने जो कुछ देखा था, विस्तारपूर्वक बयान किया।
गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा--भगवान का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी। सुना तो हमने भी है, लेकिन कभी भीतर नहीं गये कि कोई पूछने-पाछने लगे, तो निकाले जायँ। हाँ, घुड़साल और गऊशाला देखी है। मन चाहे तुम भी देख लो।
अभी समय बहुत बाकी था। अमर गऊशाला देखने चला। मन्दिर के दक्खिन पशुशालाएँ थीं। सबसे पहले फ़ीलखाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आँगन में जंजीरों में बँधे खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़, कोई इतना छोटा जैसे भैंस! कोई झूम रहा था, कोई सूंड़ घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूलें, अम्बारियाँ, गहने सब अलग एक गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपने सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत से फूल पैरों के नोचे थे।
यहाँ से घुड़साल में पहुँचे। घोड़ों की कतारें बँधी हुई थीं, मानो सवारों की फ़ौज का पंड़ाव हो। पाँच सौ घाड़ा से कम न थे, हरेक जाति के हरेक देश के। कोई सवारी का, कोई शिकार का, कोई बग्घी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। महन्तजी को घुड़दौड़ का बड़ा शौक़ था। इनमें कई घोड़े घुड़दौड़ के थे। उन्हें रोज़ बादाम और मलाई दी जाती थी।