गऊशाले में भी चार-पाँच सौ गायें-भैंसें थी। बड़े-बड़े मटके ताजे दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पाँच-पाँच मन दूध उनके स्नान को तीन बार रोज चाहिए, भण्डार के लिए अलग।
अभी यह लोग इधर-उधर घूम रहे थे कि आरती शुरू हो गई। चारों तरफ़ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।
गूदड़ ने कहा--तुमसे कोई पूछता कौन भाई हो, तो क्या बताते?
अमर ने मुसकराकर कहा--वैश्य बताता।
'तुम्हारी तो चल जाती; क्योंकि यहाँ तुम्हें लोग कम जानते हैं। मुझे तो लोग रोज़ ही हाते में चरसे बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते। यहाँ के पण्डों-पुजारियों के चरित्र सुनो तो दाँतों उँगली दबा लो; पर वे यहाँ के मालिक हैं, और हम भीतर कदम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्मण जँचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-चमार पुकार रही है।
अमर की इच्छा तो हुई कि अन्दर जाकर तमाशा देखे; पर गूदड़ को छोड़कर न जा सका। कोई आध घण्टे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गये, तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आँगन में टहलता रहा।
आध घंटे के बाद उसने फिर साधु द्वारपाल से कहा तो पता चला, इस वक्त नहीं दर्शन हो सकते। प्रातःकाल आओ।
अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त महन्तजी को फटकारे; पर ज़ब्त करना पड़ा। अपना-सा मुँह लेकर बाहर चला आया।
गूदड़ ने यह समाचार सुनकर कहा--इस दरबार में भला हमारी कौन सुनेगा?
'महन्तजी के दर्शन तुमने कभी किये हैं?'
'मैंने! भला मैं कैसे करता? कभी नहीं।'
नौ बज रहे थे, इस वक्त घर लौटना मुश्किल था। पहाड़ी रास्ते, जङ्गली जानवरों का खटका, नदी-नालों का उतार। कहीं रात काटने की सलाह हुई। दोनों एक धर्मशाला में पहुँचे और कुछ खा-पीकर वहीं पड़