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अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ्तर में पहुँचा, तो बीसों मुनीम लंबी-लंबी बही खोले लिख रहे थे। कारकुन महोदय मसनद लगाये हुक्का पी रहे थे।

अमर ने सलाम किया।

कारकुन साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरकर पूछा--अर्ज़ी कहाँ है?

अमर ने बगलें झाँककर कहा--अर्ज़ी तो मैं नहीं लाया।

'तो फिर यहाँ क्या करने आये?'

'मैं तो श्रीमान् महन्तजी से कुछ अर्ज़ करने आया था।'

'अर्ज़ी लिखाकर लाओ।'

'मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूँ।'

'नज़राना लाये हो?'

'मैं ग़रीब आदमी हूँ, नज़राना कहाँ से लाऊँ।'

'इसीलिए कहता हूँ, अर्ज़ी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, वह सुना दिया जायगा।'

'तो कब हुक्म' सुनाया जायगा?'

'जब महन्तजी की इच्छा हो।'

'महन्तजी को कितना नज़राना चाहिए?'

'जैसी श्रद्धा हो। कम-से-कम एक अशर्फ़ी।'

'कोई तारीख़ बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊँ। यहाँ रोज कौन दौड़ेगा?'

'तुम दौड़ोगे और कौन दौड़ेगा। तारीख़ नहीं बतायी जा सकती।'

अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्ज़ी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गये।

इनके आने की ख़बर पाते ही गाँव के सैकड़ों आदमी जमा हो गये। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तान्त कहता है, तो लोग उसी को उल्लू बनायेंगे। इसलिए बात बनानी पड़ी--अर्ज़ी पेश कर आया हूँ। उस पर विचार हो रहा है।

काशी ने अविश्वास के भाव से कहा--वहाँ महीनों में विचार होगा तब तक यहाँ कारिन्दे हमें नोच डालेंगे।

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कर्मभूमि