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सकता था; लेकिन दिल के साफ, उदार, परोपकारी आदमी थे। जब अमर ने गाँवों की हालत उनसे बयान की, तो हँसकर बोले--आपके महन्तजी ने फ़रमाया है, सरकार जितनी मालगुजारी छोड़ दे, मैं उतनी ही लगान छोड़ दूंगा। हैं मुन्सिफ़मिज़ाज!

अमर ने शंका की--तो इसमें बेइन्साफ़ी क्या है?

'बेइन्साफ़ी यही है कि उनके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, सरकार पर अरबों कर्ज है।'

'तो आपने उनकी तजवीज पर कोई हुक्म दिया?'

'इतनी जल्द! भला छ: महीने तो गुज़रने दीजिए। अभी हम काश्तकारों की हालत की जाँच करेंगे, उसकी रिपोर्ट भेजी जायगी, रिपोर्ट पर गौर किया जायगा, तब कहीं कोई हुक्म मिलेगा।'

'तब तक तो असामियों के बारे-न्यारे हो जायँगे। अजब नहीं कि फ़साद शुरू हो जाय।'

'तो क्या आप चाहते हैं, सरकार अपनी वज़ा छोड़ दे! यह दफ्तरी हुकूमत है जनाब! यहाँ सभी काम ज़ाब्ते के साथ होते हैं। आप हमें गालियाँ दें, हम आपका कुछ नहीं कर सकते। पुलिस में रिपोर्ट होगी, पुलिस आपका चालान करेगी। होगा वही, जो मैं चाहूँगा, मगर ज़ाब्ते के साथ। खैर, यह तो मज़ाक था। आपके दोस्त मि० सलीम बहुत जल्द उस इलाके की तहकीकात करेंगे; मगर देखिए, झूठी शहादतें न पेश कीजिएगा, कि यहाँ से निकाले जायँ। मि० सलीम आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं; मगर भाई, मैं तुम लोगों से डरता हूँ। खासकर तुम्हारे उस स्वामी से। बड़ा ही मुफसिद आदमी है। उसे फँसा क्यों नहीं देते। मैंने सुना है वह तुम्हें बदनाम करता फिरता है।'

इतना बड़ा अफ़सर अमर से इतनी बेतकल्लुफ़ी से बातें कर रहा था, फिर उसे क्यों न नशा हो जाता? सचमुच आत्मानन्द आग लगा रहा है। अगर वह गिरफ्तार हो जाय, तो इलाके में शान्ति हो जाय। स्वामी साहसी है, यथार्थ वक्ता है, देश का सच्चा सेवक है; लेकिन इस वक्त उसका गिरफ्तार हो जाना ही अच्छा।

उसने कुछ इस भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न हों, पर

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कर्मभूमि