मियाँ सलीम को आँटे दाल का भाव मालूम हुआ। यहाँ केवल हुकूमत नहीं है, हैरानी और जोखिम भी है, इसका अनुभव हुआ। जब पानी का झोंका आता या कोई नाला सामने आ पड़ता, तो वह इस्तीफ़ा देने की ठान लेता---यह नौकरी है या बला है! मजे से जिन्दगी गुजरती थी। यहाँ कूत्ते-खसी में आ फंँसा। लानत है ऐसी नौकरी पर! कहीं मोटर खड्ड में जा पड़े, तो हड्डियों का भी पता न लगे। नयी मोटर चौपट हो गयी।
बँगले पर पहुँचकर उसने कपड़े बदले, नाश्ता किया और आठ बजे ग़ज़नवी के पास जा पहुँचा। थानेदार कोतवाली में ठहरा था। उसी वक्त बह भी हाज़िर हुआ।
ग़ज़नवी ने वृत्तान्त सुनकर कहा--अमरकान्त कुछ दीवाना तो नहीं हो गया है? बातचीत से तो बड़ा शरीफ़ मालूम होता था; मगर लीडरी भी मुसीबत है। बेचारा कैसे नाम पैदा करे। शायद हजरत समझे होंगे, यह लोग तो दोस्त हो ही गये, अब क्या फ़िक्र। 'सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का!' और ज़िलों में भी तो शोरिश है। मुमकिन है, वहाँ से ताकीद हुई हो। सूझी है इन सभों को दूर की। हक यह है कि किसानों की हालत नाजुक है। यों भी बेचारों को पेटभर दाना न मिलता था, अब तो जिन्सें और भी सस्ती हो गयीं, पूरा लगान कहां, आधे की भी गुंजाइश नहीं है, मगर सरकार का इन्तजाम तो होना ही चाहिए। हुकूमत में कुछ-न-कुछ खौफ़ और रोब का होना भी जरूरी है, नहीं उसकी सुनेगा कौन। किसानों को आज यक़ीन हो जाय कि आधा लगान देकर उनकी जान बच सकती है, तो कल वह चौथाई पर लड़ेंगे और परसों पूरी मुआफ़ी का मुतालबा करेंगे। मैं तो समझता हूँ, आप जाकर लाला अमरकान्त को गिरफ्तार कर लें। एक बार कुछ हलचल मचेगी, मुमकिन है, दो-चार गाँवों में फ़साद भी हो; मगर खुले हुए फसाद को रोकना उतना मुश्किल नहीं है, जितना इस हवा को। मवाद जब फोड़े की सूरत में आ जाता है, तो उसे चीरकर निकाल दिया जा सकता है। लेकिन वही दिल-दिमाग की तरफ चला जाय, तो ज़िन्दगी का खात्मा हो जायगा। आप अपने साथ सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस को भी ले लें और अमर को दफा १२४ में गिरफ्तार कर लें। उस स्वामी को भी लीजिए। दारोगाजी आप जाकर माहब बहादुर से कहिए, तैयार रहें।